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(जैन पाठावलो जिस समय को यह बात है, उस समय वहाँ बडे-बडे जगल थे । लोग लकडियो के घर बनाते और उन्ही में रहते थे। कुशाग्रपुर मे ऐसे बहुतेरे मकान थे। जहाँ लकडी के मकान होते है वहाँ आग लगने की समावना भी रहती है। इसलिए, राजा ने हुक्म निकाला कि जिसके घर मे आग लगेगी उसे नगर छोडकर चला जाना पड़ेगा।
दुर्भाग्य से राजमहलं मे ही आग लग गई । राजा ने कहा-अच्छी-अच्छी चीजे निकाल लो और नगर के बाहर चलो। किसी ने लिये रत्न और किसी ने लिये मोती। मगर श्रेणिक ने ली भभा। यद्धविजय का नगाडा भभा कहलाता है।
राजा ने पूछा-श्रेणिक, भभा क्यो ली है?
श्रेणिक-पिताजी, मैने तो विजय की निशानी ली है। विजय के विना जिंदगी का मजा ही क्या है ?
पिता ने सोचा-श्रेणिक अवश्य ही एक बड़ा विजेता होगा। फिर मजाक मे कहा-अव तुझे लोग ‘भभासार' कहेगे । यह 'भभासार' शब्द विगडकर 'भभसार' बन गया, 'भमसार बदलकर 'विवसार' हो गया, इतिहास में विवसार' राजा का नाम आता है। वह श्रेणिक का ही दूसरा नाम है ।
प्रसेनजित राजा बाहर निकले सो निकले। अन्त तक उन्होने अपने वचन का पालन किया। वह कुशाग्रपुर से थोडी दूर जाकर वही रहने लगे। राजा वचन का पालन करे तो प्रजा भी वचन का पालन करती है । यथा राजा तथा प्रजा।