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तृतीय भाग)
(२०९ जानकर खराब आदमी को सुधारने का प्रयत्न करना चाहिए।' ऐसा नियम तो महान् पुरुष और स्त्रियाँ ही जानती है।
पर सुभद्रा समझदार स्त्री थी। उसने अपने भाग्य का ही दोष समझा। उसने किसी की वात पर कान न देकर निर्णय किया--मुझे यह कलक धोना ही पडेगा । जब तक मेरा कलक दूर न होगा, मै अन्न पानी ग्रहण नहीं करूँगी। मस्तक पर धूप गिर रही है। भूक से पेट कुनमुना रहा है। पानी के बिना गला सूख रहा है। फिर भी सुभद्रा शान्ति के साथ खडी है । मन में प्रभु का नाम रट रही है, मुख में भी प्रभु का ही नाम है । सती की परीक्षा पूरी हुई । उसके कानो मे आकाशवाणी सुनाई दी_ 'सती ! तेरा कलक कल धुल जायगा। चिंता मत कर।'
सुभद्रा ने शाति के साथ रात्रि व्यतीत की। सुबह हुआ द्वारपाल नगरी के दरवाजे खोलने लगे। उन्होने खोलने की वहुत कोशिश की, सारा जोर लगा दिया, मगर किवाड नही खुले । हार मानकर वे राजा के पास दौडे गये। नगर के लोग भी घबराये । लाख कोशिश करने पर भी नगर के दरवाजे खुलने का नाम नही लेते ।
थोडी देर में आकाशवाणी सुनाई दी-'कोई सती स्त्री, कच्च सूत से, चालनी से, कुएँ का पानी खीच कर दरवाजो पर छिडकेगी तो दरवाजे खुलेगे ।
राजा ने इसी आशय का ढिंढोरा पिटवा दिया । सुभद्रा