________________
तृतीय भाग )
( १८३
कुशाग्रपुर के लोग ऐसे न्यायी राजा को कैसे भूल सकते थे ? वे लोग बॉर वार राजा के निवासस्थान पर आने लगे । आपस में कोई पूछता-कहाँ गये थे ? तो लोग उत्तर देते - राजगृह में गये थे । राजगृह अर्थात् राजा का घर । धीरे-धीरे राजगृह के आस-पास बडे-बडे महल और मन्दिर वन गये । वस्ती वढती गई । वह वस्ती एक नगरी हो गई और वह नगरी राजगृही नगरी के नाम से प्रख्यात हुई ।
राजा प्रसेनजित अब बूढे हो चले । उन्होने सोचा- 'दूसरे कुमारो को थोडे-थोडे गाँव दे दूं और उन्हे सँभालने के लिए तैयार करूँ, श्रेणिक को फिलहाल कुछ भी न देकर कही बाहर भेज दूँ । इससे श्रेणिक का अनुभव बढेगा और दूसरे भाइयो को तसल्ली होगी ।' राजा ने इस विचार पर अमल किया ।
श्रेणिक, राजा की आज्ञा पाकर बाहर निकला । कहाँ जाना है, यह तो निश्चत था नही, इसलिए वह निरुद्देश्य चलता २ वेणातट पहुँचा । वहाँ वह एक व्यापारी की दुकान पर बैठा । श्रेणिक बहुत भाग्यशाली था । व्यापारी को उस पर बहुत प्रेम उपजा और उसने उसे अपने घर रख लिया, श्रेणिक ने बात गुप्त रक्खी कि वह राजगृही का राजकुमार है । उसने अपने भाग्य के सहारे दुकान बढिया जमा दी। गरीव व्यापारी धनवान् बन गया । व्यापारी की नन्दा नाम की एक कन्या थी । वह विवाह के योग्य हो गई । व्यापारी ने इस कुमार को ही जामाता बनाने का विचार किया । उसने सोचा- इसके समान होशियार और विनयवान् जामाता मुझे और कहाँ मिलेगा ? '