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नन्दन मणियार मेढक के रूप में, बावडी मे फिरता रहता है । एक बार वह मेढक बावडी के किनारे आया । पास में कुछ लोग खड़े थे । उनके वचन मेंढक के कान मे पडे । पर मेढक मनुष्य की भाषा मे क्या समझे । फिर भी उसमें पूर्वजन्म के कुछ अच्छे सस्कार थे । उसने भगवान् के लिया था । निमित्त मिलने पर वह सत्सग लगा कि - ' ऐसी भाषा तो मैने पहले भी कही
सत्सग का लाभ फला । मेंढक को
सुनी थी ।'
इस तरह का विचार करते-करते उसे अपना पिछला
भव याद आ गया ।
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नन्दन मणियार
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अपने पूर्वभव को याद करके वह भीतर ही भीतर पछताने लगा । वह सोचने लगा- 'एक समय में मनुष्य था । श्रेष्ठ था । भगवान् महावीर का श्रावक था । वावडी की आसक्ति के कारण में मेंढक हुआ । "
इस प्रकार पछता कर उसने बावडी में से निकलने का विचार किया । मेढक होकर भी वह यथाशक्य धर्म और सयम का पालन करने लगा । उसने चाहे जिस जतु को मारना और त्रास देना त्याग दिया । अव वह पानी को भी इसे तरह पीता था कि कोई जीव मर न जाय ।