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(जैन पाठावली
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आधीन किया है और भूमि-प्रदेशो को जीता है, मगर हृदय-प्रदेश के मोह राजा को तूं ने अभी तक नहीं जीता है ।' सप्रति अव भमझ गया । तभी से उसने धर्म की और ध्यान देना आरंभ किया।
ऐसी समझदार माता धन्य है ! और ऐसी .आज्ञापालक मतान भी धन्य है !
माता का आशीर्वाद मानो फलीभूत हुआ और स्थूलभद्र के शिष्य श्रीआर्यहस्ती तथा अन्य मुनिराजो के साथ उसका परिचय हुआ। फूल में सुगध की तरह उसे जैनधर्म के प्रति अनुराग उत्पन्न हुआ। वह साधुसतो की सेवा करने लगा।
अपने कर-दाता राजाओ के पास संप्रति ने खबर भेजी कि मुझे तुम्हारे धनभण्डार की आवश्यकता नही है। अपनी प्रजा को धर्मज्ञान दो । साधुसतो को विनय के साथ नमस्कार करो और उनकी सेवा करो। मुझे प्रसन्न करने का एक मात्र यही मार्ग है
सप्रति ने अनेक धर्मशालाएँ बनवाई और अन्नशालाएं ग्वोली । वावडियाँ वनवाकर प्रजा का जल-कप्ट मिटाया। उपाश्रय
और पोपधशालाओ का निर्माण कराया । मदिर बंधवाय । तालाव का पानी नहर के रास्ते पहुँचाने की, अशोक महाराज द्वारा आरंभ की हुई योजना को कार्य रूप में परिणत किया ।-,
मप्रति राजा ने अन्यान्य देशों में भी उपदेशक भेजकर धर्म फैलाया और इस तरह धर्म की महान् मेवा की। '
ऐसे होते है राजा । एमे धर्मप्रेमी राजाओ का स्थान