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तृतीय भाग)
(२०१ पुत्र उसके पीछे.पागल हो उठा है। अमीर उमराव उसे आमत्रित करके बुलाते है । धनवान् उसका स्वागत करते है। प्रकृति की कैसी देन है। लोग खुश होकर अच्छी-अच्छी भेट देते हैं। तब सूरदास कहता है-'दौलत नही, दिल चाहिए।' और वह मस्ती के साथ नगर में घूमता है। बालक, बूढे और जवान उसके पीछे-पीछे फिरते है।
- पाटलीपुत्र के महाराजा अशोक को खबर लगी । अशोक बौद्धधर्म का स्तम्भ था । अशोक अर्थात् नीतिपालक नरपति ।
- अशोक की ओर से सूरदास को निमत्रण मिला । दोपहर ढल गई है । मत्री, महाराज और नगर जन, सब समय से पहले आ पहुंचे हैं । गजरानियाँ, दासियाँ और नगर की प्रतिष्ठित नारियाँ अपने-अपने स्थान पर अवस्थित हैं । थोडी देर में सूरदास भी दरबार मे आ पहुँचा । महाराज सूरदास से कुछ दूर बैठे थे। सूरदास की मांग के अनुसार बीच में सफेद चादर का एक पर्दा रक्खा गया था।
सूरदास ने भजन की शुरुआत की । देखते ही देखते वातावरणं शान्त हो गया। महाराज उसके भजनो में एकतार हो गये। भजनो में न जाने कैसा रस था कि पीते-पीते सतोष ही नहीं होता था।
समय पूरा हआ और भजन बन्द हो गए। फिर भी सभी के कानो मे भजनो कानाद गुंजता रहा । राजा बहुत प्रसन्न हुआ। उसने कहा-कहो सूरदास ! क्या दिया जाय ?'