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तृतीय भाग)
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नन्दन ने पौपधव्रत ग्रहण किया था । उसने दो दिन ता कठिनाई से निकाल दिये। तीसरे दिन उसे बहुत प्यास लगी । वह मन ही मन सोचने लगा- ' बावडी हो तो उसे भी खाली कर दू और अपनी प्यास बुझाऊँ ।' यो करते-करते विसी प्रकार तीन दिन निकल गए। उसका शरीर धर्मस्थानक में रहा और मन वावडी में रहा ।
पौषध पार कर वह राजा श्रेणिक के पास गया । जाकर उसने कहा - 'महाराज | नगरी के बाहर, वैभार पर्वत के पास बावडी खुदवानी है । आज्ञा दीजिए ।'
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राजा ने कहा- मेरी आज्ञा क्यो नही होगी ? खुशी से वावडो खुदवाओ प्रजा पानी पीएगी और आशिर्वाद देगी । थोडे दिनो मे बावडी तैयार हो गई । उसका नाम रक्खा गया- 'नन्दनपुष्करिणी ।' वावडी बडी सुन्दर थी । लोग देखते-देखते अघाते नहीं थे कैसी समचौरस । कैसी काठे वाली । और इसकी सीढियाँ कितनी सुन्दर है ।
थोडे दिनो बाद उसमे कमल उग गये । रंग-बिरंगे कमलों की सुगन्ध से भौंरे ललचाने लगे। भौंरो की गुजार से बावडी गूंजने लगी | बावडी के किनारे केले का वृक्ष उगा । लोग आते और पानी पीते, फूलो की सेज पर सोते और जल में जलक्रीडा करते । नन्दन मणियार अपनी तारीफ सुनकर फूला
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न समाता ।
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