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तृतीय भाग)
(१७९ और मुनि शान्त चित्त से यह सब सहन कर रहे थे।
अभी थोड़ी देर पहले जिस जगह मुनि का भाव-भक्ति के साथ सन्मान हुआ था, उसी जगह उन्हे मरणातिक वेदना सहन करनी पड़ रही थी। फिर भी मुनि समभाव में स्थिर थे। इसे कहते है सामायिक |
सुनार मन ही मन कह रहा था-'अब यह साधु जरूर कहेगा कि मैने जो लिये हैं। पर मुनि को कहाँ कुछ कहना शेष रहा था! वे मौन ही रहे । मुनि के लिये मुर्गे का शरीर और अपना शरीर समान था। बल्कि मुर्गे की रक्षा के लिये अपना शरीर दे देना अधिक अधिक उचित लगता था। मुर्गा वेचारा अज्ञान प्राणी ठहरा । उसे देह के प्रति ममता हो, यह स्वाभाविक है, पर मुनि को तो देह की ममता नहीं। उनके लिये मरना और जीना दोनो समान थे इसे कहते हैं समभाव ।
जव मान ने मुर्गे को अपने समान समझ लिया तो फिर वे उसका नाम कैसे लेते ? मुर्गा बच जाता है तो अहिंसा का पालन होता है और मौन रहने से सत्य की भी रक्षा होती है। तो फिर राशवान शरीर की क्या परवाह ! __ श्री मेतार्य मुनि का यह समभाव धन्य है !
मुनिराज को दुस्सह वेदना हुई, लेकिन क्षमा और दया के सागर मेतार्य मनिराज ने सुनार पर जरा भी क्रोध नही किया घोर वेदना के कारण मनि की आँखे निकल आई। शुद्ध भावना बढ़ती गई और उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ । थोडी
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