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तृतीय भाग) करते हैं । प्राणीमात्र को अपनी आत्मा के समान समझते हैं । सत्य बोलते हैं। ब्रह्मचर्य पालते है। तप और ध्यान में मग्न रहते हैं। इस तरह साधुता का पालन करते रहने से मोह का वृक्ष समूल भस्म हो जाता है। उन्हे केवलज्ञान प्राप्त होता है । अब वे गाँव-गाँव घूमकर लोगो को उपदेश देते हैं। चार तीर्थों की स्थापना करते हैं। इस कारण वे तीर्थङ्कर कहलाते है । वही बाईसवे तीर्थकर भगवान् अरिष्टनेमि हैं।
राजुल ने भी अपने पति का मार्ग स्वीकार किया। उसने अपने बडो-बढ़ो और वासुदेव जैसो के आशीर्वाद प्राप्त किये । उसने भगवान नेमिनाथ के पास दीक्षा ली। राजुल के साथ और भी बहुतेरी बहिने दीक्षित हुई।
पति के पथ पर विचरनेवाली कुमारी राजुल धन्य है । , इस जोड़ी ने दाम्पत्य की सच्चो सफलता साधी ।
राजुल साध्वी सैकडो साध्वियो के साथ विचरने लगी। वह तप और संयम से अत्यन्त पावन होकर पृथ्वी को पवित्र करने लगी। - एक बार वह गिरनार पर गई । इतने में वर्षा होने लगी अपने भीगे वस्त्रो को सुखाने के लिए उन्होने एक गुफा का आश्रय लिया। वस्त्र हटा दिये। शरीर उघाडा हो गया ।
सयोगवश उसी गुफा में रथनेमि बैठे थे। अन्धकार के कारण रार्जुल उन्हे देख नही सकी थी। रथनेमि राजुल का रूप देखकर मोहित हो गए और मोह के वचन कहने लगे। ।