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(जैन पाठावली राजुल अब उत्तम विचार पर पहुंच गई थी । उसे माता पिता की यह बात नही रुची। वह धीमे स्वर से बोलीमाताजी और पिताजी । विवाह करूंगी तो इन्ही के साथ, नहीं तो नही । ससार के दूसरे पुरुष मेरे भाई और पिता हैं।' अहा । कितनी श्रेष्ठ है यह भाषा | और यह भाषा सिर्फ कहने के लिए नहीं थी। यह तो राजुल का पक्का निश्चय था। .
अब किसमें साहस था जो राजल की मगनी कर सके ? माता-पिता ने भी कन्या के विवाह का विचार छोड़ दिया।
राजुल कुँवारी रही । राजुल की टेक धन्य है । मुंह में आया कौर छिन गया । फिर भी सतोप मानने वाली राजुल को हजारो वन्दना !
नेमि-राजुल
(२) राजुल अब सतियो के सुन्दर जीवन चरित्र पढ़ने में अपना समय बिताती है और कुमारिका-व्रत पालती है। दान ही अव उसका आभूपण है । गील ही उसका सिंगार है।
नेमिनाथ ने एक वर्ष तक खुले हाथो दान दिया। उसके बाद दीक्षा ले ली। रैवतक (गिरनार) पर्वत पर बहुत से साधुओ के साथ जाते हैं। नगै पैरो चलते हैं। भिक्षा मे जो कुछ भी रूखा-मूत्रा मिल जाता है उसी से अपना निर्वाह
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