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( जैन पाठावली
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धनावाह सेठने अपनी स्त्री मूला से कहा - ' इसे अपनी बेटी समझ कर रखना ।' सेठानी प्रसन्न हुई । सेठ-सेठानी दोनो वसुमती पर, स्नेह रखने लगे । वसुमती आनन्द के साथ अपने दिन विताने लगी। धीरे-धीरे वह अपने माँ के अभाव को भूलने लगी । मगर इतने में तो कर्म ने फिर उछाल मारना शुरू किया । वसुमती पर सेठ का स्नेह दिनो-दिन बढता जाता था । वसुमती चन्दन जैसे शीतल और मोठे वचन बोलती थी । इसीलिए सेठ उसे ' चन्दनबाला' कहकर
पुकारता था ।
चन्दनबाला अव चौदह वर्ष पूरे करके पन्द्रहवें वर्ष में प्रवेश कर चुकी थी । उसके अग अग में जवानी की छटा फूट रही थी । वह देखकर मूला कभी - कभी सोचने लगती - 'सेठजी अभी तो इसे लडकी की भांति रखते है, मंगर किसी समय इसके साथ विवाह कर बैठे तो ? तब तो मेरी जिन्दगी मिट्टी में मिल जायगी ।' इस प्रकार की आशका मे सेठानी डूबी रहती । कभी कभी ईर्पा की आग उसे सुलगा देती थी । इसी समय आग में घी होमने के समान एक प्रसग बना गया ।
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सेठ बाहर से आये थे । पैर धूल से भरे थे। नौकर कोई मौजूद नही था । विनयी चन्दनवाला स्वयं पानी लेकर दौडी और सेठ के पैर धोने लगी। उस समय उसकी चोटी छूट गई चन्दनबाला के लम्बे-लम्बे और भौरा जैसे काले बाल कीचड से न भर जाएँ, इस विचार से सेठ ने अपनी छडी से बाल ऊपर कर लिये । चन्दना जब खडी हुई तो स्नेह से उसकी चोटी
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