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तृतीय भाग)
कोशा सिंगार सजती है । हावभाव दिखाती है । सुगन्ध महकाती है । सिंगार-वर्धक चित्र टागती है । वढिया स्वर से शृगारमय गाना गाती है, नृत्य करती है। लेकिन, मुनि” का तो एक भी रोम नही फडकता।
- जहाँ भोग भोगे वही ऐसा अद्भुत त्याग । धन्य हैं . मुनिराज स्यूलभद्र ।
निरख-निरख नव यौवना, लेश न विषय निदान ।
आत्मा को देखे अहा ! ते भगवान् समान॥ ___स्थूलभद्र सचमुच इस विषय में भगवान् के समान थे। ___ अन्त में कोशा हार गई। मनि ने मौका देखकर उसे उपदेश दिया-'कोशा | इस चमडी मे रम नही है, रक्त या मास में भी रस नहीं है। रस तो आत्मा में है।' इतने-से शब्दो से हो कोशा पिघल गई । आत्मा के तेज के सामने कौंन नहीं पिघल जाता?
कोशा अब श्राविका बन गई। वनों. और नियमो का पालन करने लगी । वह आत्मा का ध्यान करनी है और ऊंचीऊंची चढती जाती है । स्थूलभद्र का काम पूरा हो गया। जिस कोशा को शरीर की तरफ खीचा था, उसे अब आत्मा की तरफ खीच लिया । ऋण चुका दिया । स्थूलभद्र को खूब सतोष हुआ। वह गुरु के पास आये और चरणों मे मस्तक' झुकाया ।
दूसरे शिष्य भी आये। उन्होंने भी गुरुजी को वन्दना