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( तृतीय भाग
१६१)
भी उसकी शोभा का वर्णन करते-करते थक जाती । राजीमती
का लाड का नाम राजुल था । राजुल के गुणो की गिनती नही हो सकती थी । जैसे वर वैसी ही वधू । यह जोडी धन्य है ।
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'शुभ मुहूर्त निकलवाया गया । आखिर विवाह का दिन आ पहुँचा। सौरीपुर में आज आनन्द ही आनन्द छाया हुआ था । बरात रवाना हुई । सब से आगे शहनाइयाँ मधुर स्वर मे बज रही थी । ढोल गडगडा रहे थे । तासे अलग ही राग आलाप रहे थे । तरह-तरह के बाजे बज रहे थे । उनके पीछे सेकडो घोडेस्वार कलैया कुमार शान के साथ चल रहे थे । फिर हाथीसवार और पैदलो की विशाल सेना चल रही थी । इस सेना के बीचो-बीच समुद्र के फेन के समान सफेद घोडो वाला और खूब सजाया हुआ रथ था । इस रथ में दूल्हा बने नेमकुमार सुशोभित हो रहे थे । मस्तक पर उत्तम छत्र दीप्त हो रहा था। दोनो तरफ चँवर ढोरे जा रहे थे । उनके सिंगार का क्या पूछना | उनके तेज की बात ही न्यारी है । रथ के पीछेपीछे यादव कुल की नारियाँ तथा नागरिक नारियाँ मधुर और कोमल कुठ से मगल-गीत गाती जा रही थी । कोई-कोई सवारियो पर सवार थी और कोई-कोई पैदल चल रही थी । इनके पीछे यादवो का और नागरिक जनो का विशाल समूह था । बुढियाएँ और नौकर-चाकर अपने-अपने घरोसे वरात को देखते थे । बाकी सारा नगर बरात की शोभा देखने के लिए चबूतरो
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पर खडा था ।
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