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(जैन पाठावली की । कोई गेर की गुफा के पास : चौमासा बिताकर आये थे, कोई साँप की बाबी के निकट रहे थे। किसी-किसी ने कोर तप किया था।
गुरुजी ने सब का वृत्तान्त सुनकर कहा-'अच्छा किया ।' स्थूलभद्र के लिए कहा-'बहुत अच्छा किया ।' यह सुन कर दुसरे शिप्यो के चेहरे बदल गए । मन ही मन उन्होने कहा-, गुरु कितने पक्षपाती है ।
गुरुजी समझ गये । दूसरा चौमासा आने पर उन्हें भी ऐमा ही अनुभव करने का अवसर दिया । सकटो को मह लेना सरल है, पर प्रलोभनो को जीतना बड़ा कठिन है। सिह की गुफा मे रहना सरल है किन्तु जवान कामिनी स्त्री के सामने अडिग रहना कठिन है । अनुभव से सब को इस बात पर विश्वास हो गया। कोशा तो अब अडिग हो चुकी थी। मुनि डिगे पर कोशा नही डिगी। मुनि हार कर लौटे । उनके मुंह से यह उद्गार, निकल पडे -
भगवान् स्थूलभद्रधन्य है । उनके स्वर मे स्वर मिलकर हम भी कहते हैं
__भगवान् स्थूलभद्र धन्य है ? कोशा के मन्दिर मध्य, रहे मुनि स्थूलभद्र, वेश्या संग वास तो भी हुए नहीं विहारी। - हए नहीं विकारी, उनको वन्दना हमारी, देखो अरे देखो जैनों, कैसे व्रतधारी ।।