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(तृतीय भाग समय की बलिहारी है। कर्म के कटुक बीज बोने में तो मजा आता है पर फल चखते समय नानी याद आ जाती है ।
ऐसी हालत मे पडे नल और दमयन्ती घूमते-फिरते जगल में जा पहुँचे । जगल में रास्ता भूल गये । रास्ता खोजते है, पर मिलता नही । इतने में साँझ हो जाती है। घोर अन्धकार फैल जाता है । अन्त मे किसी पेड़ के नीचे घास-पात बिछाकर दोनो सो जाते हैं।
कही चीते की आवाज सुनाई देती है तो कही सिंह की गर्जना सुन पडती है । कभी नौला क्री-क्री करता हुआ दौडधाम मचा रहा है तो कभी अजगर पाससे निकलता है । ऐसी भयानक जगह मे नल-दमयन्ती लेटे है । थकावट जगह थोडे ही देखती है । इसलिए दमयन्ती पति के भरोसे खुर्राटे लेकर सोती है।
पर नल को अभी नीद नहीं आई। वह दमयन्ती की तरफ देखकर सोचने लगे--मेरे खातिर यह सती कितनी कष्ट भुगत रही है ? इस तरह सोचते-सोचते नल की आँखो से आसू बहने लगे। विचार आया--दो जने साथ रहते हैं तो दो के पेट की चिन्ता करनी पड़ती है मै अकेला चल दूं तो ?
भूखा आदमी कौन-सा पाप नहीं कर बैठता? ऐसे कठिन मौके पर नल अकेला भाग जाने का इरादा कर रहा है | उसकी मनोदशा तो देखो।
नल फिर सोचता है-दमयन्ती को इस भयानक जगल में