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(जैन पाठावली के वियोग-को हम-किस तरह सहन करेगे ? माता के हृदय का विचार तो कर । उतावल मत कर।' '
यो कहते-कहते माता की आँखें भर आई । माता के आँसू देखकर सुबाहुकुमार कुछ पसीज गया।
यह देख माता आगे बढकर कहने लगी-'मेरे लाल ! इतना होने पर भी मैं तुझे सयम से हटाना नही चाहती । ऐसा करूंगी तो मैं अपने कर्त्तव्य से गिर जाऊँगी । इसलिए मै अपने वात्सल्य को हृदय मे दवा कर, मुझे जो कुछ कहना चाहिए वही कहती हूँ। भगवान् महावीर का शासन विश्व की तरह विशाल है । और जितना विशाल है उतना ही कठिन भी है । तूंने श्रावक के व्रतो को दिपाया है मगर साधु का उत्तरदायित्व बहुत अधिक है । तूंने वासना पर तो विजय पा ली है मगर स्नेह को भी तुझे जीतना होगा । समभाव मे स्थिर होने की साधना सरल नही है । एक तरफ क्रोध और मान तथा दूसरी तरफ माया और लोभ । इन सब प्रबल विकारो के सामने टिकने के लिए तप, त्याग, ज्ञान और अखंड ध्यान की आवश्यकता पडेगी । इस तरह आगे बढने पर भय तो अन्त तक खडा हुआ ही है । इस वेडे को पार लगाने के लिए भारी प्रयत्न करना पडेगा । बेटा । भगवान् को सर्वस्व अर्पण करके उन्ही की शरण में रहना । यह समर्पण-वृत्ति तुझे मुसीवत के प्रत्येक मौके पर सहायक होगी। इच्छा है तो जा बेटा । मै अन्त करण से मागीर्वाद देती हूँ ।'