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( जैन पाठावली
झूठा कलक । फिर भी मुला सेठानी पर उसे तनिक भी रोष नही, जरा भी द्वेष नही । ऐसी चन्दना को लाखो धन्यवाद !
धनावाह सेठ बाहर गाँव से लौटकर आये । बहुत ढूंढखोज करने पर चन्दना का पता चल गया । उसकी दशा देखकर सेठ की आँखो से आसुओ की धारा बह निकली ।
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यह सब मूला सेठानी की करतूत है, यह जानकर सेठ के क्रोध का पार न रहा । चन्दना कहने लगी- 'पिताजी / दोष माताजी का नही है । उनका तो बहुत उपकार है । दोष मेरे कर्मों का है । आप माताजी को कुछ न कहे !'
सेठ वोले- 'धन्य है बेटी । पर तेरे लिए खाने को तो ले आऊँ ।'
सेठजी खाना लेने दौडे । पर उन्हे ढोरो के लिये तैयार
किये
हुए और सूप में रक्खे हुए उडद के बाकले के सिवाय कुछ
मिला नही । सेठ सूप उठाकर लाये और चन्दना के पास रख दिया। इसके बाद बेडियाँ काटने के लिये वे लुहार को बुलाने दौडे |
चन्दना का एक पैर देहली पर है और दूसरा बाहर है। बेटी बैठी वह सोचती है कि ऐसे समय पर कोई अतिथि सन आ जाएँ तो कितना अच्छा हो । चन्दना इस दुख में और ऐसी' भूख मे भी अतिथि सत को नही भूलीं ।
इतने में ही एक सत उस ओर पधारे। उन्होने निश्चय किया है कि- ' कोई सती और राजकुमारी दासी की तरह रही