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तृतीय भाग)
(१२३ धारिणी और वसुमती भाग खडी हुई। रास्ते में मां बेटी को कौशाम्बी का एक ऊँटनी सवार दिखाई दिया । सवार की नीयत बिगडी। अपने गील की रक्षा करने के लिए माता ने ' प्राण दे दिये । देह तो फिर मिल जाता है मगर शील एक बार नष्ट हो जाता है तो फिर नहीं मिलता।
बिना माता की अकेली कन्या चीखें मार-मार कर रोने लगी। बारह वर्ष की उसकी उम्र थी, लेकिन समझदार थी। आखिर भगवान पर भरोसा रखकर उसने अपना मन शान्त किया। ऊँटनी सवार धारिणी की मृत्यु से सहम गया था। वह सोचने लगा-इस लडकी का क्या करूं? अन्त में उसे सूझा कि कौशाम्बी के बाजार में ले जाकर इसे बेच देना ही उचित है और इस प्रकार वह बेचने के लिए बाजार में खड़ा हुआ । कहाँ राजा की गुणवन्ती कुमारी और कहाँ सरे बाजार विकने वाली अनाथ दासी । कर्म की गति को कौन समझ सकता है ? 'करम-गति टारी नाहिं टरे ।'
सौभाग्य से कौशाम्बी के धनावाह सेठ उसी रास्ते आ निकले । वसुमती पर उसकी नजर पडी । सेठजी सोचने लगेकन्या किसी ऊंचे कुल की और सस्कारी है । कौन जाने, किसी लम्पट के हाथ पड जाय । बेहतर है कि मै ही इसे खरीद लूं। सेठजी के कोई बाल वच्चा नहीं था । उन्होने मुंह माँगे दाम , देकर वसुमती को खरीद लिया । वसुमती की तकदीर इतनी तो सुधरी !