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( तृतीय भाग इस दृष्टि से देखने पर क्रोध भी हिंसा है, बिना सोचे समझे और देखे-भाले सहसा काम कर डालना भी हिसा है, खराब बर्ताव करना भी हिंसा है, दूसरो को गुलाम बनाना भी हिंसा है । शिकार, मासाहार, शराब और दूसरे छोटेमोट व्यसनो में भी हिंसा है।
यद्यपि बनम्पति, अनाज, पाणी और पवन वगैरह मे भो जीव हे, और उनको काम में लेना भी हिसा है, लेकिन ऐसी हिंसा अनिवार्य हिंसा है । मदिरापान या मासाहार की इच्छा को हम समझ सकते है और त्याग भी सकते है। उनका त्याग कर देने से हमारी कोई हानि नही होती । जीवित रहने के लिए उनकी आवश्यकता नही है ।
कोई कह सकता है-जीव अमर है । वह मर नही सकता फिर हिंसा के पाप का प्रश्न हो पैदा नहीं होता। बात सही है । पर जीव के साथ लगे हुए शरीर का छेदना-भेदना होता है , और ऐसा करने का हमें कोई अधिकार नहीं है । इस सिवाय जीव मरता भले ही न हो, पर मारने की इच्छा मे त हिंसा की भावना है ही। यह ही आत्मा का नाश करती है फिर मारने वाला अगर समझता है कि जीव की मृत्य नह होती तो वह किसी को मारनं. की खोटी इच्छा ही क्यों करत है? और प्रयत्न मी क्यो करता है? पाओ को इतना ज्ञान नहीं होता, पर मनुष्यो मे ज्ञान होता है । विवेक मनुष्य का मरर गुण है । अतएव 'जीवो जीवस्य भक्षणम्' के बदले 'जीवो जीवस रक्षणम्' यह मनुप्य का आदगं होना चाहिए । इसीलिए तं सभी धमंगास्त्रो मे 'अहिंसा परमो धर्म' माना गया है। .