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जैन पाठावली)
'परन्तु यह मोह न तो जीव का मूल स्वभाव है और न पुद्गल का मूल स्वभाव है, तो फिर यह आया कहाँ से? और कब आया? इसका कोई उत्तर नहीं है। बुद्धि द्वारा यह नहीं जाना जा सकता है। सर्व प्रथम इसके उत्तर की भी आवश्यकता नहीं है। श्रद्धा द्वारा इतना स्वीकार कर लिया जाय कि ससारी जीव मोहवशात् ही ससार में परिभ्रमण करता है यही स्थिति यथार्थ है, इसमे कब ? और कैसे ? का उत्तर भले ही नहीं मिले, किन्नु मोह से ससारी आत्मा आवृत्त है, आत्मा की यह विभाव‘दशा है और इसमे से मुक्त होना चाहे तो हो सकता है, ऐसी शक्ति वाला और स्वभाव वाला आत्मा है। .
इतनी स्वीकृति के बाद मोक्ष के कारण और बन्ध के कारण जानने की जिज्ञासा उत्पन्न होना स्वाभाविक ही है और ऐसी जिज्ञापा की उत्पत्ति के साथ ही नव-तत्त्वो के ज्ञान का इतिहास आरम्भ होता है। इनमें से सात तत्त्वो का विचार तो आपन कर चुके हैं, अब तो "जीव का किस प्रकार कर्मबन्धन होता है ?" इसी बात का यहाँ पर मुख्य रूप से विचार करना है । आत्मा के बन्धन की चर्चा को “कर्म का तत्त्वज्ञान" भी कहा जा सकता है। इस तत्त्वज्ञान के ऊपर ही जैन-दर्शन का मुख्य आधार है।
. कर्मवाद का सिद्धान्तजैन तत्त्वज्ञान और ईश्वर--
जैन तत्त्वज्ञान में ईश्वर को स्थान है । ईश्वर कर्तृत्ववाद