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तृतीय भाग)- . यशोकीर्ति ) नामकर्म है।
२५ से ३४ स्थावर दशक ( १ स्थावर, २ सूक्ष्म, ३ अपर्याप्त, ४ साधारण, ५ अस्थिर, ६ अशुभ, ७ दुस्वर, ८ दुभंग, ९ अनादेय, १० अयशोकीति नामकर्म हैं।
___३५ से ४२ तक आठ प्रत्येक प्रकृतियाँ हैं.-१ अगुरुलघु, २ उपघात, ३ पराघात, ४ श्वासोच्छ्वास, ५ आतापनाम, ६ उद्योत, ७ निर्माण और ८ तीर्थङ्कर नामकर्म ।
उपरोक्त १४ पिण्ड प्रकृतियो के अवान्तर भेद ६५ होते हैं। इनके साथ अस दशक, स्थावर दशक, और आठ प्रत्येक प्रकृतियो के मिलाने पर नामकर्म की कुल ९३ प्रकृतियाँ होती हैं। (७) गोत्र कर्म
गोत्रकर्म की दो प्रकृतियाँ हैं, (१) उच्चगोत्र और (२) नीच गोत्र । (८) अन्तराय कर्म की पाँच प्रकृतियां -
(१) दान देने में अन्तराय देनेवाला कर्म दानातराय है।
(२) लाभ मे विघ्न उपस्थित करनेवाला कर्म लाभातराय है।
(३) भोग की सामग्री होने पर भी जिसके कारण से उसे नही भोग सके, उसका अच्छा उपयोग नही किया जा सके वह भोगातराय कर्म है।
(४) उपभोग की सामग्रियो का सदुपयोग जिसके कारण से नहीं किया जा सके, वह उपभोगातराय कर्म है ।