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( जैन पाठावली
(५) जो आत्म-शांति का उपयोग नही होने दे, वह
वीर्यान्तराय कर्म है ।
ये कर्म किन कारणों से बंधते है और कैसे छूटते
?
मूल कारण तो यह है कि ये कर्म आत्मभान भूलने से और मोहग्रस्त होने से बन्धते हैं । इसके विशेष कारण निम्न प्रकार है-
(१) ज्ञानी और ज्ञान के साधनो में बाधा पहुंचाने से ज्ञानावरणीय कर्म बँधते हैं । बाधा नही पहुँचाने पर इसका वन्धन नही होता है तथा ज्ञान-साधनो मे अन्य को सहायता देने से पूर्व मे बन्धे हुए ज्ञानावरणीय कर्म छूट जाते हैं ।
( 2 ) यही बात दर्शनावरणीय कर्म के सम्बन्ध मे भी है । इस सम्बन्ध मे ज्ञानाचार और दर्शनाचार में विस्तारपूर्वक कहा गया है ।
(३) वेदनीय-
सातावेदनीय और असातावेदनीय का पुण्य, पाप एवं अगुभध्यान से बन्धन होता है । सवर से रुकता है, निर्जरा से दूर होता है, सातावेदनीय की साधनरूप में आवश्यकता है । तीथङ्करो के भी सातावेदनीय कर्म है ।
( ४ ) मोहनीय कर्म का मोह से बन्धन होता है । आठो कर्मों का यह मूल है, यह सवर से रुकता है और पूर्वकाल में TET हुआ यह कर्म चारित्र द्वारा निर्वल होता है ।
इसके लिए चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार का