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(जैन पाठावली
परिपालन किया जा सकता है । अतएव मनुष्यभव प्राप्त करके मोक्ष के मार्ग को प्राप्त करने के लिये प्रयत्न किया जाना चाहिये।
(६) नामकर्म-काया, वचन और भाव की सरलता से शुभ नामकर्म का बधन होता है, तथा कपट, मायाचार आदि द्वारा अशुभ नामकर्म बधता है । शुभाशुभ से दूर होने के लिये ममभाव पूर्वक प्रयत्न करना चाहिये ।
(७) गोत्रकर्म-अभिमान करने से नीचगोत्र और नम्रता से उच्चगोत्र का बध पडता है, समभाव से रुकता है एव चारित्र से कर्मबन्धन निर्बल होता है ।
(८) अतरायकर्म-दान, लाभ, भोग, उपभोग और पुरुषार्थ में बाधा डालने से, शक्ति होने पर भी पुरुषार्थ नही करने से, शक्ति का अनिष्ट मार्ग मे उपयोग करने से, योग्य मार्ग में शक्ति का उपयोग नही करने से, अतरायकर्म का बन्धन होता है, मवर से कर्मवध रुकता है और चारित्र से क्षीण होता है । घाती अघाती कर्म:
(१) आत्मा की शक्तियो का जो घात करते हैं, वे घाती कर्म कहे जाते है, वे चार हैं - (१) ज्ञानावरणीय, (२) दर्शना. वरणीय, (३) मोहनीय, (४) अन्तराय । इन चारो का मुख्य आधार मोह ऊपर ही है। मोह का नाश होते ही इन चारो ही कर्मो का नाश हो जाता है ।।
(२) गेप चार अघातीकर्म है, ये आत्मा को आधारभूत हानि पहुंचानेवाले नही हैं। शरीर के साथ सम्बन्ध रखने वाले