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( तृतीय भाग
कारण है कि मोह की अधिक चिकनाहट वाला अर्थात् अधिक आसक्ति वाला जीव कर्मों से भारी बनता है और जन्म-मरण के भवचक्र मे घूमता है ।
जब आत्मा से संबधित कर्मों का फल - अनुभव बन्ध अनुसार और स्थिति बन्ध अनुसार भोग लिया जाता है, तब वे कर्म आत्म-प्रदेशो से मुक्त हो जाते है, इसी का नाम कर्मों की निर्जरा है, । फल भोगने के बाद कर्मों की निर्जरा स्वयमेव हो जाती है, इसी प्रकार तप द्वारा भी कर्म फल देने के पूर्व ही आत्म-प्रदेशो से अलग हो सकते हैं ।
प्रदेश बन्ध
प्रदेश अर्थात् क्या ? यह द्रव्य के प्रकरण में कहा जा चुका है । प्रदेश अर्थात् इतना सूक्ष्म अश, कि जिसके अन्य अंगो की कल्पना बुद्धि द्वारा नही हो सकती है, ऐसे कर्म पुद् - गलो के प्रदेशो का आत्मा के साथ आकर दूध-पानी के समान मिल जाना ही प्रदेश बंध कहलाता है ।
इतने विवेचन द्वारा समझ में आ गया होगा कि वन्ध का याने आश्रव का मुख्य आधार आसक्ति ही है । स्थिति और अनुभव बन्ध का सम्पूर्ण आधार कषाय पर है, कारण कि रागद्वेष ओर क्रोध अ.दि कपायो की सूक्ष्मता और परिमाण पर ही स्थिति बन्ध और अनुभाव वन्ध की न्यूनाधिकता रही हुई है, इसी प्रकार प्रकृतिवन्ध और प्रदेशबन्ध का आधार योग की भाशुभ वृत्ति से सम्वन्धित है ।