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(तृतीय भाग (२) दर्शनावरणीय कर्म की ९ प्रकृतियां:
(१) नेत्र द्वारा होने वाले सामान्य बोध को जो कर्म आच्छादित करे, वह चक्षुदर्शनावरणीय है।
(२) नेत्र के सिवाय शेष इन्द्रियो और मन द्वारा होने वाले सामान्य बोध को जो ढाके, वह अचक्षुदर्शनावरणीय, है ।
(३) दूर रहे हुए रूपी पदार्थो को इन्द्रियो की विना सहायता के ही जाननेवाला जो सामान्य बोध है ऐसे बोध को जो कर्म ढाक दे वह' अवधिदर्शनावरणीय' कर्म है ।
(४) केवल लब्धिद्वारा होने वाले सामान्य बोध को जो कर्म ढाक दे वह केवलदर्शनावरणीय' कर्म है।
इनके सिवाय (५) निद्रा (ऊंघना), ६)निद्रानिद्रा (वार वार ऊघना),(७) प्रचला (बैठे बैठे ऊघना).(८) प्रचला प्रचला (चलते चलते ऊघना) और (९)स्त्यानगृद्धि (ऊघ अवस्था में ही कोई कार्य करने पर भी ऊघ नही उडना) इस प्रकार इन पाँचो निद्राओ के मिलाने पर दर्शनावरणीय कर्म के नव भेद होते हैं.।.. (३) वेदनीय कर्म की दो प्रकृतियां
(१)सातावेदनीय और (२) असातावेदनीय । (४) मोहनीय कर्म की २८ प्रकृतियां- . .
___ मोहनीय के दो काम है। (१) आत्मा के सम्यक्त्व का घात करे वह दर्शनमोहनीय है और (२) चारित्र गुण का जो नाश करे वह चारित्र मोहनीय है। दर्शनमोहनीय के ३ और