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(तृतीय भाग लोहे का टुकडा चुम्बक की ओर आकर्षित होता है दोनो जड हैं चैतन्यरहित है फिर भी आकर्षित होते है । उसक कारण दोनो का उसी प्रकार का स्वभाव है। इसी तरह से " जो जैसे कर्म करता है, उसको उनका प्रतिफल स्वयमेव प्राप हो जाता है।" यह वस्तु-सिद्धान्त सत्य है ।
जैसे पागल मनुष्य अग्नि के स्तम्भ से चिपट कर "जलत हूँ" की चिल्लाहट करता है, किन्तु स्तम्भ से चिपटना नहं छोडता है और जहाँ तक नहीं छोडता है" वहाँ तक अग्नि अपन स्वभाव का परिपालन करती रहती है अर्थात उसको जलात रहती है। उसी प्रकार अज्ञान जीव का पागलपन है । जीट कर्मों से स्वतत्र होने की इच्छा रखता है किन्तु वास्तविक मार के लिए प्रयत्न नही करता है, और कर्मो को बाधता रहता है, ऐस स्थिति मे उसको वैसे फल भोगने ही पडते है। आश्रव और बंध
जैसे चिकनाहट पर सुखे रजकण आ-आ कर चिपकत है, वैसे ही मोह की चिकनाहट के कारण पुद्गल चिपकते है। "पुदगलो का आना" इसी का नाम आश्रव है। मोह के वश म होने पर कमों का बन्धन होने का नाम बन्ध है। इस प्रकार बन्धतत्त्व को अलग माना है । कर्मबन्ध के प्रकार
१ प्रकृति, २ स्थिति, ३ अनुभव और प्रदेश ये चार भेद कर्मबन्ध के हैं । इनकी व्याख्या निम्न प्रकार है