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( तृतीय भाग
न कर्तृत्वं न कर्माणि, लोकस्य सृजति प्रभुः । न कर्मफलसंयोगं, स्वभावस्तु प्रवर्त्तते ॥१४॥
ईश्वर लोगो के कर्त्तापन, कर्मों और कर्मों के फल के मयोग की रचना नही करता, किन्तु स्वभाव से ही यह मव बनता रहता है ॥ १४ ॥
नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः । अज्ञानेनावृत्तं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ॥ १५ ॥
ईश्वर (परमात्मा ) - न किसीका पाप लेता है, न पुण्य । ज्ञान पर अज्ञान का पर्दा पडा है, इससे जीव मोहित हो रहे हैं १५ क्या ईश्वरवाद व्यर्थ है ?
स्याद्वाद को मानने वाला जैनदर्शन किसी भी दृष्टि को एकान्त झूठ तो कभी कहता ही नही है, वह इनको विभिन्न श्रेणियो की योग्यता की अपेक्षा से योग्य स्थल पर सभी मतो को योग्य स्थान प्रदान करेगा । स्याद्वाद दृष्टि अर्थात् अपेक्षावाद | प्रत्येक वस्तु में विभिन्न दृष्टि के कारण विभिन्न गुण दोप रहे हुए हैं और दृष्टिभेद से वे सब सत्य है । एक ही वस्तु किसी एक “दृष्टि से उपयोगी है तो किसी दूसरी दृष्टि से वह अनुपयोगी भी हो सकती है, अर्थात् सभी विभिन्न दृष्टिकोणो से किसी एक वस्तु का एक साथ अवलोकन करना इसी का नाम स्याद्वाद दृष्टि अथवा अपेक्षावाद है। जैनदर्शन अपने इस मौलिक सिद्धान्त द्वारा विभिन्न अनेक दर्शनो की मान्यताओं के बीच मे होने वाले