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(तृतीय भार म्यादा करने का विधान किया गया है। अगर इतनी छ न दी जाय तो आजीविका के लिए खेती, पारमार्थिक कार्य प्रामाणिक धन्धा वगैरह काम भी श्रावक न कर सके । ऐसे हालत मे श्रावक निकम्मा और निठल्ला वन जाय । दूसरे श्रावक जब स्त्रय काम करता है तो वह यतना से करता है दूसरो से अगर वही काम कराएगा तो अविवेकी होने के कारण । वे यतना नहीं कर सकेगे। इस प्रकार सच्चा श्रावक हिंसा से वचने का पूरा प्रयत्न करता है, फिर भी जो हिसा अनिवार्य है, उसकी छुट उसे रखनी पडती है।
प्रश्न हो सकता है कि जब प्रत्येक जीव समान है, जो जीवनशक्ति फूल की पाखुड़ी में रही हुई है वही कीडी और मनुप्य में भी है तो फिर छोटे जीवो की हिंता करने की आज्ञा किस प्रकार दी जा सकती है ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि आज्ञा तो किसी भी जीव की हिंसा करने की नहीं है। पर अनिवार्य होने मे लाचारी के कारण ही श्रावक सूक्ष्म हिसा का त्याग नहीं कर सकता।
एकेन्द्रिय जीवो के विपय मे इतना विवेक गने की सूचना करने के बाद दो इन्द्रिय आदि जीवो के विषय में इन व्रत में यह छूट रखी गई है कि-रोग या अन्य निगी कारण से इन जीवो की उत्पत्ति हो जाय तो उन्हें पूरा करने के लिए, यतना करने पर भी यदि हिसा हो जाय तो वह भी अनिवार्य है।
अब रही पंचन्द्रिय जीवो की बात । उनके विषय में भी नियम है। निरपराध जीवो कोनो नहीं ही मारना चाहिए । साथ ही अपराधी को हिंसा की या वैर की भावना से नहीं