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(तृतीय भाग हुई अपनी स्त्री के सिवाय और श्राविका नीतिपूर्वक स्वीकार किये हुए अपने पति को छोड़कर किसी दूसरे की ओर बुरे भाव से न देखे ।
स्वनारी-मर्यादित ब्रह्मचर्य पालने का आदर्श बहुतों के लिए उपयोगी सावित हुआ हैं।
साधु और साध्वी तो पूरा-पूरा ब्रह्मचर्य पालते हैं । इसलिए वे देव, पशु या मनुष्य जाति के किसी भी व्यक्ति के साथ मैथुन का सेवन नहीं कर सकते । श्रावक और धाविका को भी इस पथ पर चलना है । अगर सतान प्राप्त करने की इच्छा के कारण एकदम इस मार्ग पर वे न चल सके तो धीरे-धीरे चलने की छूट उन्हे दी गई हैं। इस मर्यादा में भी अगर थोडी सतान मे सतोप न कर लिया जाय और जब तक इन्द्रियां शिथिल न हो जाएं तव तक अब्रह्मचर्य सेवन करता रहे तो से स्वस्त्री या स्वपुरुप के साथ व्यभिचार ही गिनना चाहिए।
ब्रह्मयं व्रत, दूसरे व्रतो की तरह मन, वचन और काय से पालन किया जाता है। जो अपने शरीर को काबू में रखता जान पड़ता है लेकिन मन में खराव इच्छा रखता है अथवा खराव वत्रन चोलता है, वह मूट मिथ्याचारी है। मन में खराब इच्छाएं होने देना और शरीर को दबाने की कोगिरा करना यह हानिकारक है । जहाँ मन होगा वहाँ गरीर को भी वह घसीट ले जाएगा।
ब्रह्मचर्य का पालन करने में गरीर को बहुत लान होना है। उन लामो का वर्णन गरने की आवश्यता नहीं है । गभी जानते हैं कि ब्रह्मचर्य पालो से शरीर बलवान होता है, मन