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तृतीय भाग) भावना, (८)सवर भावना, (९) निर्जरा भावना, (१०)लोक भावना, (११) बोध भावना और (१२) धर्म भावना ।
भरत चक्रवर्ती 'अन्यत्व भावना' की आराधना करते २ ही केवल ज्ञानी हो गये । ये भावनाएँ कर्म-बन्धन को रोकने वाली हैं।
पांच चारित्रो का वर्णन चारित्राचार में किया जा चुका है।
तात्पर्य यह है कि सावद्य कामो का परित्याग कर देना और अनिवार्य कामो को करना पड़े तो समभाव के साथ करने से नये कर्मो का आगमन रुकता है । सवर तत्व का यही सार है।
सवर तत्त्व के आराधन से नये कर्म तो रुक जाते हैं किन्तु आत्मा ने जिन कर्मों का बन्धन पहिले कर लिया है उनका क्या ? इस प्रश्न का विचार करते समय उत्तर में जिस तत्त्व की प्राप्ति हुई वह निर्जरा तत्त्व है । इसके ऊपर अपने को विचार करना है।
निर्जरा तत्व व्याख्या
निर्जरा अर्थात् कर्म अलग हो जाना-झर जाना, हट जाना । सवर से नये कर्म रुकते है और निर्जरा में पुराने कम पहिले बाधे हुए कर्म अलग होते है। कर्मों से मुक्त होने के लिए निर्जरा की इतनी और ऐसी आवश्यकता है कि इसके विना मुक्ति कभी भी प्राप्त नहीं हो सकती है । सवरहित निर्जरा में अज्ञान होने से उसको अकाम निर्जरा कहते है। इसमे कर्म