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(तृतीय भाग पारने का कन्या का जो अधिकार है, वह भी जोखिम में पह जाता है । इससे समाज में अव्यवस्था होती है ।
(३) सृप्टिविरूद्ध काम करना या केवल खराव इच्छार करना इससे भी " अनंगक्रीडा " दोप लगता है। जैसे जन्नत आग में घी डालने से आग भडक उठती है, उसी प्रकार सरा भावना रखने से बुरी इच्छाएँ और ज्यादा भडकती है । इस 'स्वस्त्री-मर्यादा' या 'स्वपति-मर्यादा का पालन करना अशव हो जाता है । सन्तान भी खराब होती है ।
. (४) दूसरी बार विवाह करना दोप है और दूसरो । विवाह कराने का धधा करना भी दोप है । क्योकि ऐसा घधा करने से सराब टेव पड़ जाती है । इससे ब्रह्मचर्य की अपेक्षा अब्रह्मचर्य होने का ज्यादा भय है ।
(५) कामभोग की खूब इच्छा रखना भी अतिचार है। यद्यपि यह मन का दोष है, मगर मन की इच्छा ही गरीर और वाणी के विकार का मूल है। इसी में सव दोष उत्पन्न होते हैं
स्त्री और पुरुष दोनो के लिए अपने-अपने तरीको ऊपर कहे दोप लगते है।