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(- तृतीय भाग ऐसे पुण्यशाली को पुप्य के प्रताप से शुभकर्मों का आश्रव होगा और उनके फलरूप में उसको अच्छे साधनो की प्राप्ति होगी किन्तु साधनो की प्राप्ति के बाद वह विकास करेगा या हास की और जायगा यह निश्चयरूप से नहीं कहा जा सकता है, यदि वह समदृष्टिशील होगा तो उन साधनो का उपयोग आत्मविकास के लिए करेगा एव पुण्य को धर्म का निमत्त बना देगा । यदि किसी ने अभिमान नही करते हुए समभाव रखे हो और साथ में कोई आदर्ण क्रिया नही की तो उसके लिए वह 'सवरदशा' कही जायगी । इसी प्रकार यदि कोई समभावना के साथ कोई भी आदर्श क्रिया करे तो वह निर्जराशील ' कहा जायगा। आश्रव के कारण :___ 'जब तक दुर्गुणो का त्याग नही होगा, तब तक आश्रव नही रुकेगा' इस सिद्धान्त के अनुसार आश्रव के स्वरूप को समझते हुए कुछ एक साधन अथवा क्रियाएँ साधारण रूप से आश्रव स्वरूप हैं, उनका विचार कर लेना चाहिए ।
अज्ञान ( वास्तविक ज्ञान का अभाव ) पाच, अथवा बारह व्रतो का अपालन, पाच प्रमाद, चार वषाय, मन, वचन और काया सवधी कुअ.दते, राग-द्वेष के आधीन होकर पाचो इन्द्रियो को स्वछन्द कर देना, हास्य, कुविनोद तथा हिसा आदि ये सव आश्रव के निमित्त कारण हैं। हिंसाजन्य २५