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जैन पाठावली )
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हो जाती है । किन्तु यदि पुण्य क्रिया धर्मानुलक्षी न हो तो वह
किया बन्धरूप बन जाती है ।
तत्त्व के रूप
था कि जन
जिन आचार्यों ने पुण्य तथा पाप को स्वतंत्र में निर्देश किया है, उनकी दृष्टि में यह तात्पर्य साधारण पुण्य और पाप दोनो को आश्रव रूप मान लेने पर पाप से भी निवृत्त नही होगे, कारण कि दोनो आश्रवस्त हैं तो फिर पुण्य करो अथवा पाप करो, इसमें क्या अनर है ? ऐसा समझ लेगे ।
साधारण पुरुषो को पाप से पुण्य की ओर ले जाने के लिए दोनों तत्त्वों को भिन्न-भिन्न वतला कर कहा कि यदि पुण्य आत्मानुलक्षी नही होगा तो वह आश्रवरूप वन जायगा, इसलिए आत्मानुलक्षी बनने का ध्यान रखखो, आदर्श खखो,
वाह्य दृष्टिकोण से तो पुण्य शुभ क्रिया है और पाप अशुभ किया ही है । साराश यही है कि बाह्य क्रियाओ से या तो पुण्य होगा अथवा पाप, इन दोनो में से एक ही रहने वाली है । पाप के भेद
पाप अर्थात् अशुभ कर्म । निकृष्ट पुद्गलो में अथवा अनिष्ट आदतों में यदि आत्मा मलग्न हो तो वह पापी ही बनती है । पाप के १८ प्रकार सक्षिप्त रूप से प्रतिक्रमण में बतलाये गये हैं, इन ठारह पापस्थानों का आचरण नही करना चाहिए। जो नावरण करता है उसको पाप का फल भोगना पडता है । पाप का फल -
पाप का परिणाम भाविकाम के सावनो में कठिनाइयाँ पैदा होना है। आत्मविकास में महायक कारणों की प्राप्ति