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जैन पाठावली )
अहिंसा का स्थान :
और सब व्रतो मे अहिंसा व्रत मुख्य है। अतएव उसका स्थान पहला है । जैसे धान्य की रक्षा के लिए वाड की जरूरत होती है, उसी प्रकार दूसरे व्रत अहिंसा की रक्षा के लिए ही है। अहिंसा का स्वरूप :
अहिगा का स्वरूप समझने के लिए यह आवश्यक है कि पहले उसकी विरोधी हिंसा को ठीक तरह समझ लिया जाय इसीलिए इस व्रत का नाम 'अहिंसाव्रत' न रखकर 'प्राणातिपात विरमणव्रत' रखा गया है । उसके पहले गृहस्थो के लिए 'स्थूल' शब्द भी जोडा गया है।
पहला व्रत स्थूल हिंसा से विरत होने का है । और स्थूल हिंसा का अर्थ चलते-फिरते प्राणियों ( स जीवो) की हिंसा किया जाता है । समझदार मनुष्यो को ऐसे प्राणियो की हिंसा से सदैव वचना चाहिए । अलबत्ता, इससे यह नही समझ लेना चाहिए कि गृहस्थो को छोटे जीवो की हिंसा करने की छुट्टी है | वास्तविक बात यह है कि गृहस्थी की जवाबदारियों को पूरा करने में छोटे (स्थावर ) जीवो की हिना हो ही जाती है । फिर भी गृहस्थ पैर की भावना से इन जीवो को नही मारता ओर न शोक के लिए ही मारता है । जीवन को अनिवार्य आवश्यकताओ को पूरा करने के लिए ही इस व्रत मॅ छूट दी गई है । इस छूट का दुरुपयोग न किया जाय, इस उद्देश्य से सातवे व्रत में उपभोग - परिभोग के पदार्थों की
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