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( तृतीय भा भावना का आशय है मन की टेव। जिसकी जैसी भावर होती है, उसे वैसी ही सफलता मिलती है । इस कारण प्रत्ये व्रत के साथ भावना को पवित्र रखने की भी बडी आवश्यक है । इस बात को ध्यान में रक्खे विना. अणुव्रत या महावर का पूरा मूल्य नहीं रहता। तो के दो बाजू:
व्रतो के नाम ऊपर दिये जा चुके है। उन नामों । किसी को यह ख्याल आ सकता है कि दोषो के त्याग को पर का नाम दिया है । यद्यपि यह ठीक है मगर यह नहीं समझ लेना चाहिए कि वधारी होने का अर्थ निष्क्रिय होकर व जाना है । बन के दो बाजू हैं-एक निवृत्ति और दूसरा प्रवृत्ति निवृनि और प्रवृत्ति के ठं.क-ठोक मेल से ही प्रत मे पूर्णत आती है । बुरे कामो से निवृत्त होने के साथ अच्छे कामो । प्रवृत्त होना चाहिए । निवृत्त होने का व्रत लेने का आग यही है कि उसके विरोधी अच्छे काम में प्रवृत्त होन आवश्यक है।
हिमा, असत्य बगैरह दोषो का स्वरूप आगे बतलाय जायगा । उन दोपो का स्वम्प नमन कर उन्हें दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए। तभी अहिमा और सत्य आदि का पूर वरह पालन होता है।