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जैन पाठावली) जाणियव्वा- जानने योग्य है। । न समायरियव्वा- ' आचरण करने योग्य नही है। तं जहा
वे. (अतिचार) इस प्रकार है (१) संका
वीतराग के कहे मार्ग मे शका
करना', । (२) कंखा- पर मत की चाहना करना, धर्मक्रिया
के फलस्वरूप इस लोक परलोक के
सुख की आशा करना। (३)वितिगिच्छा - धर्म-क्रिया के फल मे सदेह करना। . (४) परपासंडपसंसा- धर्म के नाम से पाप का उपदेश
करने वाले ढोगियो की प्रशंसा करना । । (५) परपासंडसंथवो- वेषधारियो का परिचय करना ।।
इस प्रकार समकित रूप रत्न पर अतिचारों द्वारा अश्रद्धा रूप जो रज, मैल दोष लगा हो तो अरिहतो और अनत सिद्ध भगवतो की साक्षी से मिच्छा मि दुक्कड। "
१- क्यो कि जाने विना त्याग नही किया जा सकता ।' इमीलिए अतिचारो को सब जगह जानने योग्य कहा है। अज्ञानी हित-अहित को समझ नहीं सकता। ऐसी स्थिति में वह अहितकारी वस्तु को त्याग कर हितकारी वस्तु का आचरण कैसे कर सकता है ? अतएव जानना जरूरी है।
- २- अतिचारो को जानकर छोडना चाहिए, आचरण में नही लाना चाहिए।
३- कोई बात ममल में न, आई हो तो गुरुजी के सामने शका- समाधान करने में यह दोप नहीं लगता।
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