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। सुतीय भाग वीर्य-ये पांच आचार कहलाते है । जैन शास्त्रो में इन परि
आचारो का विस्तार के साथ वर्णन किया गया है । इन पांच में से तीन आचारो के विपय में पहले कहा जा चुका है। ज्ञानाचार :
(१) जिस आचार से कर्म का नाश हेता है और आत्म का ज्ञान मिलता है, वह 'ज्ञानाचार' कहलाता है । ज्ञानाची के आठ नियम बतलाये जा चके है। उन आठ नियमों के ध्यान में रखकर, ' विनय के सथि, गुरु से जो शास्त्र क अभ्यास करता है, उसका ज्ञान अधिक अधिक बढता जाता है और ज्ञान को रोकने वाले दोष नष्ट होते जाते हैं । ज्ञा का अभ्यास करने वालो को चाहिए कि वे उन नियमो को भी न भले ।
दर्शनाचार:
(२) जिससे मिध्यात्व मोह का नाश होता है औ सम्यक्त्व अथवा यथार्थ श्रद्धा प्रकट होती है, उसे 'दर्शनाचार कहते हैं। इसके आठ नियमो के विषय मे भी पहले कहा - 'चुका है।
(३) चारित्राचार (३) कपाय आदि की उपशान्ति को तथा व्रत आदि चारित्र को चारियाचार कहते हैं । चारित्राचार में पाच समि तियो और तीनो गुप्तियो का समावेश होता है। इन आटो का प्रवचनमाता, भी कहते हैं। माधुओ को तो आठ प्रवचनमात का पालन करना अनिवार्य है ही, पर बावको को भी इनक शान और यथागवित पालन करना चाहिए।