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(तृतीय भाग
पाठ दसवां
चारित्र
चारित्र क्या है ? :
चारित्र का अर्थ है- अपने स्वरूप में रमण करना । जब राग और द्वेष का पूरी तरह नाश हो जाता है और मन, वचन तथा काय में स्थिरता आ जाती है; तभी - आत्मा के. स्वरूप मे ठीक तरह रमण किया जा सकता है। ऐसी स्थिति मे पहुंचने के लिए अहिंसा आदि व्रतों का पालन आर ' हिंसा आदि पापो का त्याग भी सहायक है। अत इसे भी चारित्र कहते है । क्योकि इसकी सहायता से राग द्वेष का नाश किया जा सकता है । इसके नाश से दोषो का त्याग और व्रतो का पालन होता है।
'चारित्र की भूमिकाएँचारित्र के पांच भेद है:
१ सामायिक २ छेदोपस्थापनीय ३ परिहारशद्धि ४ सूक्ष्मसम्पराय ५ ययाख्यातचारित्र ।
१) सव प्रकार के सावध योग (पापकारी प्रवृत्ति) का त्याग करके आत्मोत्यानकारी प्रवृत्ति करना सामायिक है। .
छेदोपस्थापनीय आदि चारो चारित्र सामायिक रुप तो है ही फिर भी आचार की कुछ भिन्नता उनमें पाई जाती है।