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जैन पाठावली )
पाठ बारहवाँ
साधना की तीसरी सीढी
[ चारित्र का निर्माण और उसके नियम ]
(४१
चारित्र के नियम में भिन्नता :
जीवन के लक्ष्य- मोक्ष तक पहुचने के लिए ज्ञान और दर्शन के बाद तीसरी सीढी चारित्र है । पूर्ण चारित्र अर्थात् राग द्वेष आदि भावो से निवृत्ति और आत्मा में स्थिरता ।
चारित्र के इस मूल स्वरूप को प्राप्त करने के लिए अहिंसा सत्य आदि जिन नियमो को स्वीकार किया जाता है, वे सब नियम भी चारित्र कहलाते है, देश काल वगैरह की स्थिति और विचारो में फेर पडने पर दैनिक जीवन के क्रम में भी फेर पड जाता है । यही कारण है कि चारित्र का मूल स्वरूप एक होने पर भी उसके सहायक नियमो की सस्या में और स्वरूप में फेर पड़ता है । इसी कारण साधु और श्रावक के व्रत और नियम भी शास्त्र में अलग-अलग बतलाये गये है । व्रतो की व्याख्या और भेद :
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जो नियम श्रद्धा और समय के साथ स्वीकार किया है, वह व्रत कहलाता है । उसे हम अपनी वोलचाल की भाषा में प्रतिज्ञा, टेक, नाखडी आदि शब्दों से पहचानते है |