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( तृतीय भाग
(२) मौन रखना या बोलते समय वचनो का ध्यान रखना अथवा अवसर जानकर मौन रखना वचनगुप्ति है । (३) किसी भी चीज को उठाने धरने में अथवा उठनेबैठने चलने फिरने में शरीर को विवेक के साथ प्रवृत्त करना कायगुप्ति है ।
समिति में विवेक के साथ क्रिया करने की मुख्यता है ओर गुप्ति में क्रिया को रोकने की मुख्यता है । मुमुक्षुओं के लिए गुप्ति उत्सर्ग मार्ग है और समिति अपवाद मार्ग है ।
जैसे माता अपने बालक की रक्षा करती है, उसी प्रकार पाच समितिया और तीन गुप्तियां चारित्र की रक्षा करती हैं इसलिए शास्त्र में इन आठो को 'प्रवचनमाता' कहा है ।
व्रतो का भी चारित्राचार में ही समावेश होता है । प्रति श्रमण भी चारित्राचार का ही अंग है । इस सम्बन्ध में लम्ब विवेचन करने से पहले दो आचारो का तपाचार और वीर्याचार का थोडा विचार कर लेना चाहिए ।
(४) तपाचार
व्याख्या और भेद :
ज्ञान के द्वारा आत्मा के स्वरूप को जानना, दर्शन के द्वारा आत्मश्रद्धा प्राप्त करना और आत्मा के स्वरूप में स्थिर होने के लिए प्रयत्न के साथ चारित्र का पालन करना चाहिए । मगर इतना करने पर भी प्राय सराव इच्छाएँ ज्यो की त्यो बनी रहती हैं । उनका जोर कम नहीं होता । इन वासनामो को कमजोर करने के लिए और आत्मिक वल चढाने के लिए शरीर इन्द्रिय और मन को पक्का बनाना चाहिए । यही तप कहलाता है ।