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जैन पाठावली)
(३५ इस कारण इन चारो को अलग-अलग कहा गया है । थोडे समय के लिए या जीवन भर के लिए सावध योग का त्याग करना सामायिक चारित्र है।
(२) साधु होने के लिए पहले छोटी और बाद में बडी दीक्षा दी जाती है । अथवा साधुपन में कोई बड़ी भूल हो जाय तो फिर से दीक्षा दी जाती है। उसे छेदोपस्थापनीय' चारित्र कहते हैं।
(३)जिसमें खास तरह का ऊंचा तप और आचार पालन , किया जाता है वह परिहारविशुद्धि' चारित्र कहलाता है । । आजकल इस चारित्र का पालन नहीं किया जा सकता।
(४) क्रोध, मान और माया इन तीनों कषायो का जव , सर्वथा नाश हो जाता है और लोभ का सूक्ष्म अश वाकी रहता है, उस दशा में होने वाला चारित्र 'सूक्ष्मसम्पराय' कहलाता है । ऐसी स्थिति दसवे गुणस्थान में प्राप्त होती है। . . .
(५) कषाय का लेशमात्र भी उदय न रहने पर जो चारित्र होता है वह ' यथाख्यात' है। उसे वीतराग चारित्र भी कहते हैं।
पाठ ग्यारहवां .
पांच आचार यहा तक ज्ञान, दर्शन और चारित्र के सबंध में विचार कया गया है । यह ज्ञान, दर्शन, चारित्र तथा तप और