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(तृतीय भाग अरिहतो मह देवो, जावज्जीवाए सुसाहुणो गुरुणो। जिणपण्णत्तो धम्मो, इअ सम्मत्त मए गयि ॥
-ग-द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ और कर्म रूप आत्मा के शत्रओ को जीतने वाले अरिहत भगवान ही मेरे देव हैं। उनके सिवाय कोई मेरा देव नही है।
सच्चे पच महाव्रतधारी साधु ही मेरे गुरु है ।
केवलज्ञानियो द्वारा कहा ह बतलाया हुआ अहिंसा, सयम और तप रूप धर्म ही सच्चा धर्म है।
___ जीवन पर्यन्त इस प्रकार की सच्ची श्रद्धा रखना मैने निश्चित किया है । मैने अपने हृदय में यही भावना स्थापी है।
जान और माल का भोग देकर भी इस सच्चे धर्म से चुकना नही चाहिए। किसी भी प्रकार की सासारिक स्वार्थमय इच्छा के विना ऐमे देव, गुरु और धर्म को मानना चाहिए तभी सच्चे देव, गुरु और धर्म की मान्यता करना कल सकता है। दर्शन के अतिचार :
इस प्रकार की श्रद्धा करते-करते भी अभ्यामी कभीकी भूल कर बैठना है । उसे देव, गुरु या धर्म के विषय में कभी का हो जाती है । इस प्रकार का करने वाला आत्म अपने हित का नाम करता है । कहा भी है- ॥ संगयात्म विनश्यति ।" का मम्मन्न नामर । गका विनाग की पहल मीढी है। इसलिए उगमा त्याग करना ही उचित है । श्रद्धा को मजबूत बनाने के लिए गमकिन के पांच अतिनागे को जान बार उन्हें छोड़ना चाहिए -