Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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लक्ष्य साधना
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पग - "अरे महाराज ! आपको पता नही, जगल मे आग लग गई है, आग | जिधर आप जा रहे है, उधर ही आग की लपटें बढी आ रही हैं, कही भुन जाओगे ।"
सूरदास घबराकर बोला -- "भाई । मुझे तो कुछ दिखाई नही दे रहा है । किधर जाऊँ ? तुम मुझे रास्ता बता दो, भगवान तुम्हारा भला करेगा
ין
पशु मन-ही-मन बडा प्रसन्न हुआ, कहा - " महाराज I रास्ता तो मैं ता, किन्तु मैं चल नही सकता, आखें तो हैं, किंतु भगवान ने पाव छीन लिये चलू कैसे
"
सूरदास की बाछे खिलगई, वोला - "भाई । पाव न हो तो, क्या है, आखे सलामत चाहिए, यही बडी चीज है, देख पाव तो मेरे वडे मजबूत है, पाच मन भार कधे पर उठाकर चल सकता हूँ, बस रास्ता दिखाना चाहिए ।"
पगु ने कहा - "बाबा, तब तो घी खीचडी मिल गई, आओ मैं तुम्हे रास्ता बताऊगा ।"
हुआ अभी इस जगल से पार हो जाता हूँ, की ही सवा लाख की जान बच गई, वर्ना जाता ।"
सूरदास - 'बैठो, मेरे कधे पर । तुम रास्ता दिखाते जाओ, मैं चलता चलो दोनो मिल गये तो दोनो आज दोनो का सकरकद सिक
इस प्रकार पगु अधे के कधे पर बैठ गया, और दोनो ने मिलकर अग्निज्वालाओ से दहकते उस जगल को पार कर लिया । जब तक दोनो मिले नही, तो दोनो कष्ट पाते रहे
पासतो पगुलो दड्ढी धावमाणो य मघभो
पशु देखता हुआ भी जलता रहा, अधा दौडता हुआ भी आग की लपटो मे
फस गया ।
इस कहानी का सार बताते हुए आचार्य भद्रवाह ने कहा हैसंजोग सिद्धोइ फलं वयति
न हु एग चक्केण रहो पयाइ ।