Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ प्रथम अध्याय आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व आचार्य हरिभद्रसूरि महाप्रभावक, महान् ग्रंथकार समदर्शी, समन्वयवादी, दार्शनिक के रूप में विश्व विश्रुत रहे है। उनकी संस्कृत एवं प्राकृत ग्रंथराशि विपुल मात्रा में हैं। उनकी प्रकांड विद्वत्ता, अपूर्व ज्ञानगरिमा, निष्पक्ष आलोचना और भाषा प्रभुत्व भारतीय इतिहास में सुवर्णाक्षरों से अंकित है। 1. जन्म :- वर्तमान का चित्तौड़ आचार्य हरिभद्र का जन्म स्थल है जो राजस्थान का मेदिनीपाठ (मेवाड) का मुख्य धरातल है भारत देश की धरा अनेक वीरवर, विद्वद्वर वीरांगनाओ से विभूषित रही हैं, और अनेक सत्कार्यों से पूजनीय, प्रशंसनीय रही है। इस धरा के कण-कण तपस्वियों के तेज से, विद्वानों की विद्वत्ता से, योगियों के योग से, दार्शनिकों के दर्शनीय भावों से, सतियों की सतीत्व उर्जा से आप्लावित रहे हैं। ___राजस्थान की गौरवशाली धरा का इतिहास इस तथ्य को उजागर करता है कि यहाँ जैन एवं जैनेतर दोनों परम्परा में उच्चकोटि के दिग्गज विद्वान् हुए हैं और उनके वैचारिक संघर्ष से तत्त्वविद्या का वाङ्मय सदैव विकस्वर होता रहा है। जिस महापुरूष का स्मरणं करने जा रहे है, वे प्रारम्भ में जैनेतर परम्परा से सम्बद्ध थे। यह प्रामाणिक अनुसंन्धानों पर आधारित है कि हरिभद्र अपने समय के जैनेतर विद्वानों में विद्वत् शिरोमणि माने जाते थे। वे चित्रकूट के राजा जितारी के राजपण्डित तथा अग्निहोत्री बाह्मण थे। हरिभद्र के जन्मस्थान के रूप में चित्तौड़ चित्रकूट का प्राचीन गंन्थों में भी उल्लेख मिलता है। वे इस प्रकार है - 1) उपदेशपद 2) गणधरसार्धशतक 3) प्रबन्धकोष अपर नाम चतुर्विंशतिप्रबन्ध और नानाविध पट्टावलि। 2. शिक्षा :- हरिभद्रसूरि के उत्तरकालीन "प्रभावक चरित्रकार", "कथावल्लिका", "प्रबन्धकोशकार", हरिभद्र को शिक्षित रूप में प्रस्तुत करते है। इससे यह ज्ञात हो जाता है कि उनको वंश परम्परा से विद्या क्षेत्र का वैशिष्ट्य उपलब्ध हुआ, ब्राह्मण परम्परा में यज्ञोपवीत के समय ही विद्याभ्यास का प्रारम्भ एक मुख्य कर्तव्य समझा जाता है। उन्होंने वह प्रारम्भ अपने कुटुम्ब में ही किया हो या आसपास के किसी योग्य स्थान में, परन्तु इतना तो निश्चित प्रतीत होता है कि उन्होंने अपने विद्याभ्यास का प्रारम्भ प्राचीन परम्परा के अनुसार संस्कृत भाषा से किया होगा। उनका किसी न किसी ब्राह्मण विद्यागुरुओं के पास व्याकरण, साहित्य, धर्मशास्त्र, संस्कृत प्रधान विद्याओं का और षड्दर्शन का तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त कर एवं चौदह वेद विद्याओं में पारंगत पारदर्शी होना प्रतीत होता है। इनकी शिक्षा स्वयं में एक शक्तिशाली एवं शुभ भाववर्धक थी, इनके आस-पास रहे पंडितवर्ग भी इनके पाण्डित्य का लोहा मानते थे। | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VII MIA प्रथम अध्याय | 1 )