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गुजरात देशके सूरत शहरका दिग्दर्शन। [३१ जुग्यादिचैत्यालये श्रीमूलसंघे नन्दीसंघे सरस्वती गच्छे बलात्कारगणे कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भट्टारक श्रीपद्मनन्दीदेवास्तत्पट्टे भट्टारक श्रीदेवेन्द्रकीर्तिदेवास्तत्पट्टे भट्टारक श्रीविद्यानन्दीदेवास्तत्पट्टे भट्टारक श्रीमल्लीभूषणदेवास्तत्पट्टे भ० श्रीलक्ष्मीचन्द्रदेवास्तत्पट्टे भट्टारक श्रीवीरचन्द्रदेवास्तत्पट्टे भट्टारक श्रीज्ञानभूषणदेवास्तत्पट्टे भट्टारक श्रीप्रभाचन्द्रदेवास्तत्पट्टे भट्टारक श्रीवादीचन्द्रदेवास्तत्पट्टे भट्टारक श्रीमहीचन्द्रस्तत्पट्टे भट्टारक श्रीमेरुचन्द्रदेवास्तत्प? भट्टारक श्रीजिनचन्द्रदेवास्तत्पट्टे भट्टारक श्रीविद्यान. न्दीगुरूपेदशात् सूरतवास्तव्य रायकवालजातीय धर्मधुरंधर सम्यक्व्रतधारक गुर्वाज्ञाप्रतिपालक सप्तक्षेत्रविलसतवित् सा कुँवरजीसुत सौजीसुत लक्ष्मीदासस्तत्पुत्रधर्मदासभार्या रतनबाई तयोःसत्पुत्र धर्मधुरन्धर पूजाबिम्बप्रतिष्टासंघवच्छलकरणसमर्थ जैनप्रसिद्धमार्गे विलसतवित् श्रावकाचारचतुर गुर्वाज्ञाप्रतिपालक जगजीवनदास भार्या नवीबहू ताभ्यां विम्बप्रतिष्ठा करीता सेठ श्रीलालभाईस्तेषां पुण्यपवित्रसमस्त प्राणिगणप्रतिपालक करुणामूर्ति सेठ जगन्नाथवाई सान्निध्य विराजमाने श्रीआदिनाथजी मूलनायक नी प्रतिष्ठित नित्यं प्रणमति । श्रीरस्तु । लेखकवाचकयोः भद्रं भूयात् ।”
इस लेखसे भट्टारकोंकी वंशावलीका कुछ पता चलता है। रांदेरके जिन मंदिरकी एक प्रतिमापर जैसा ऊपर लिखा है संबत् १५१८ में देवेन्द्रकीर्ति, शिष्य विद्यानंदि हैं। इससे प्रगट है कि ये विद्यानंदि वेही विद्यानन्दि हैं जो बड़ाचौटेके प्रतिबिम्बपर लिखित हैं । संवत् १५१८ से लेकर १८०५ तक नीचेप्रमाण क्रमसे भट्टारक हुए व उनसे पहिले विद्यानंदिके गुरु देवेन्द्रकीर्ति व इनके गुरु भट्टारक श्री पद्मनंदिथे। ऊपरके लेखसे यह भी झलकता है कि इस सुरत जिलेमें सबसे पहिले भट्टारक ये ही पद्मनंदि हुए, क्योंकि इनके पहिलेके
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