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तीस स्थान दर्शन
बची हुई ७२ और १३ प्रकृतियों का क्षय हो जाता है । इसके बाद ही ये प्रभु गुणस्थानातीत सिद्ध भगवान हो जाते है ।
२ जीवसमास
जीवसमास - जिन सदृश धर्मोद्वारा अनेक जीवों का संग्रह किया जा सके उन सदृश धर्मो का नाम जीवसमास है । ये १४ होते हैं ।
(१) एकेन्द्रिय बादर पर्याप्त-जिन जीवों स्पर्शन इन्द्रिय है तथा बादर शरीर ( जो दूसरे बादर को रोक सके और जो दूसरे बादर से रुक सके) है और जिन की शरीर पर्याप्ति भी पूर्ण हो गई है वे एकेन्द्रिय बादर पर्याप्त है । ये पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति रूप पांच प्रकार के होते हैं ।
(२) एकेन्द्रिय बावर अपर्याप्त - एकेन्द्रिय बादरों में उत्पन्न होने वाले जीव, उस आयू के प्रारंभ से लेकर जब तक उनकी शरीर पर्याप्त पूर्ण नहीं होती, तब तक बादर अपर्याप्त कहलाते है । इनमें से जो जीव ऐसे है कि जो पर्याप्ति पूर्ण न कर सकेंगे और मरण हो जायगा उन्हें लब्ध्य पर्याप्त कहते है । और जो जीव ऐसे है किं जिनकी पर्याप्ति पूर्ण अभी तो नहीं हुई, परन्तु पर्याप्त पूर्ण नियम से करेंगे उन्हें निवृत्यपर्याप्त कहते है । इन जीवसमासों में अपर्याप्त शब्द से दोनों अपर्याप्तों का ग्रहण करना चाहिये ।
( ३ ) एकेन्द्रिय सूक्ष्म पर्याप्त जो जीव एकेन्द्रिय है, सूक्ष्म, ( जिन का शरीर न दूसरे को रोक सकता है और न दूसरे से रुक सकता है और सूक्ष्म नामकर्म का जिनके उदय है ) है एवं पर्याप्त है। उन्हें एकेन्द्रिय सूक्ष्म पर्याप्त कहते है ।
(४) एकेन्द्रिय सूक्ष्म अपर्याप्त - एकेन्द्रिय, सूक्ष्म, अपर्याप्त नामकर्म का जिनके उदय है उन जीवों को एकेन्द्रिय सूक्ष्म अपर्याप्त कहते हैं ।
(५) हीन्द्रिय पर्याप्त- जिनके स्पर्शन, रसना ये दो इन्द्रिय है तथा जो पर्याप्त हो चुके है उन्हें द्वन्द्रिय पर्याप्त कहते हैं ।
( ६ ) द्वीन्द्रिय अपर्याप्त उन कीन्द्रिय जीवों को जो पर्याप्त है या अभी निर्वृत्यपर्याप्त है उन्हें द्वीन्द्रिय अपर्याप्त कहते है ।
( ७ ) श्रीन्द्रिय पर्याप्त - जिनके स्पर्शन, रसना, घ्राण ये तीन इन्द्रिय है और जो पर्याप्त हो चुके है, उन्हें त्रीन्द्रिय पर्याप्त कहते है ।
(८) श्रीन्द्रिय अपर्याप्त उन त्रीन्द्रिय जीवों को जो लब्ध्य पर्याप्त या अभी निर्वृत्य पर्याप्त है उन्हें त्रीन्द्रिय अपर्याप्त कहते हैं ।
(२) चतुरिन्द्रिय पर्याप्ति-जिन जीवों के स्पर्शन, रसना, घ्राण और चक्षु ये चार इन्द्रियां है जो पर्याप्त हो चुके हैं उन्हें चतुरिद्रि पर्याप्त कहते है ।
(१०) चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त उन चतुरिन्द्रिय जीवों को जो लन्ध्यपर्याप्त या अभी निर्वृत्यपर्याप्त है, चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त कहते है ।
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(११) असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जिनके स्पर्शन, रसना, घाण, चक्षु और श्रोत ये पांचों इन्द्रियां हो किन्तु मन नहीं हो वे असंज्ञी पंचेन्द्रिय कहलाते है । वे पर्याप्ति पूर्ण हो चुकने पर असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त कहलाते है । असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव केवल तिर्यंचगति में होते है । एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीव भी केवल तिर्यंच होते है ।
( १२ ) असंज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त - उन असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों को जो लब्ध्य पर्याप्त है या अभी निर्वृत्यपर्याप्त है असंज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त कहते है ।