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पचास
चारित्र चक्रवर्ती सोचे तथा माने। सच्ची करूणा की सृष्टि में संपूर्ण जीव समान दिखते हैं। माता को सुस्वादु वस्तु अपने बच्चों को खिलाने में जितना आनन्द आता है, उतना आनन्द अकेले अपना पेट भरने में नहीं आता। जो व्यक्ति नकली नहीं, असली आनन्द चाहता है, उसे अपने आपको समुद्र की तरह गम्भीर तथा विशाल बनाना चाहिये।
रवि बाबू ने अपने विश्वकवि की प्रतिष्ठा के अनुरूप ये शब्द कहे थे-'महाशान्ति महाप्रेम, महापुण्य महाप्रेम।' महान् प्रेम ही महान् पुण्य है, उसके समीप ही महा शान्ति का निवास रहता है। योगसूत्र में लिखा है(सूत्र ३५, द्वितीय पादः)
अहिंसा प्रतिष्ठायां, तत्सन्निधौ वैर त्यागः।
सहजविरोधी-नामहिनकुलादीनां वैरत्यागः।। अर्थ : अहिंसा की प्रतिष्ठा होने पर उसके सन्निधान होने पर निसर्ग से विरोधो सर्प-नकुलादि जीवों में वैरभाव छूट जाता है।
अहिंसा की सुव्यवस्थित रीति से श्रेष्ठ साधना का मार्गदर्शन जैनग्रंथों में किया गया है। अहिंसा की सफल साधना करने वालों में चौबीसवें तीर्थकर भगवान् महावीर कैवल्य प्राप्ति के पश्चात् मगधदेश की राजधानी राजगृह के विपुलाचल पर आये थे। उस समय भगवान् के समवशरण (धर्मसभा) में विद्यमान पशुओं में अद्भुत मैत्री को ज्योति जगी थी। जिनसेन स्वामी ने महापुराण में उस मैत्री की एक मधुर झाँकी इस प्रकार दी है। सम्राट् श्रेणिक (बिम्बसार) ऋषिराज गौतम गणधर से कहते हैं -
सिंह-स्तनन्धयानत्र करिण्यः पाययन्याः ।
सिंहधेनुस्तनं स्वैरं स्पृशन्ति कलभा इमे॥२-१३॥ अर्थ : प्रभो! इधर ये हथनियाँ सिंह के बच्चो को अपना दूध पिला रही हैं तथा सिंहनो के स्तनों का दूध हाथी के बच्चे स्वेच्छा से पी रहे हैं। सम्राट् श्रेणिक पुनः कहते हैं -
तपोवनमिदं रम्यं परितो विपुलाचलम् ।
दयावनमिवोद्भूतं प्रसादयति मे मनः ॥२-१७ ॥ अर्थ : नाथ ! विपुलाचल के चारों ओर का यह तपोवन बडा रमणीय है। यह मुझे दयावन के रूप में उत्पन्न हुआ अत्यन्त प्रिय लगता है।
अहिंसा आध्यात्मिक तथा लौकिक उन्नति की जननी सदृश है। जिनेन्द्र भगवान् के एक हजार आठ नामों में महादयः शब्द आया है उसका भाव है कि भगवान महादया युक्त हैं, उनको महोदय' भी कहा है, क्योंकि उनका उदय अर्थात् उनकी उन्नति भो महान् है। महान-दया' का ‘महान-उदय' के साथ सम्बन्ध है। भगवान को 'महादमः', महाइन्द्रिय विजेता भी कहा है, क्योंकि उन्नति का आरम्भ इन्द्रिय विजय तथा आत्मनिर्मलता द्वारा सम्पादित होता है। डॉ. राधाकृष्णन् ने देहली में महावीर जयन्तो
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