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सदाचरण : एक बौद्धिक विमर्श | ३७
वही विधिवान गौतार्थ है।'
है। लेकिन शास्त्र का प्रमाण माव जानने की वस्तु है, जिसके (ब) मार्गदर्शक रुप में शास्त्र
द्वारा निर्णय लिया जा सकता है। निर्णय करने का अधिकार यद्यपि जैन विचारणा के अनुसार परिस्थिति विशेष में तो व्यक्ति के पास ही सुरक्षित है । प्रस्तुत श्लोक का 'ज्ञात्वा" कर्तव्याकर्तव्य का निर्धारण "गीतार्थ" करता है, तथापि गीतार्थ शब्द स्वयं ही इस तथ्य को स्पष्ट करता है। पाश्चात्य आचार. भी व्यक्ति है, अत: उसके निर्णयों में भी मनपरतावाद की सम्भा- दर्शन में भी यह दृष्टिकोण स्वीकृत रहा है। पाश्चत्य पलवादी बना रहती है । उसके निर्णयों को वस्तुनिष्टता प्रदान करने के विचारक जान डिवी लिखते हैं कि नलिक सिद्धांतों का उपयोग लिए उसके मार्ग-निर्देशक के रूप में शास्त्र है। सापेक्ष नैतिकता आदेश के रूप में नहीं है, वरन् उस साधन के रुप में है जिसके को वस्तुगत आधार देने के लिए ही शास्त्र को भी स्थान दिया आधार पर विशेष परिस्थिति में कर्तध्य का विश्लेषण किया जा गया । गीता स्पष्ट रूप से कहती है कि कार्य-अकार्य की व्यवस्था सके । नैतिक सिद्धांतों का कार्य उन दृष्टिकोणों और पतियों देने में शास्त्र प्रमाण है। लेकिन यदि शास्त्र को ही कर्तव्या. को प्रस्तुत कर देना है जो व्यक्ति को इस योग्य बना सके कि कर्तव्य के निश्चय का आधार बनाया गया, तो नैतिक सापेक्षता जिस विशेष परिस्थिति में वह है, उसमें शुभ और अशुभ का पूरी तरह सुरक्षित नहीं रह सकती। परिस्थितियां इतनी भित्र विश्लेषण कर सके । इस प्रकार अन्तिम रुप में तो व्यक्ति की भिन्न होती हैं कि उन सभी परिस्थितियों के सन्दर्भो सहित निष्पक्ष प्रज्ञा ही कतव्याकर्तव्य के निर्धारण में आधार बनती आचार-नियमों का विधान शास्त्र में उपलब्ध नहीं हो सकता। है। जहाँ तक सापेश नैतिकता को मनपरतावाद के ऐकातिक परिस्थितियां सतत परिवर्तनशील हैं, जबकि शास्त्र अपरिवर्तन- दोषों से बचाने का प्रश्न है, जैन दार्शनिकों ने उसके लिए शील होता है। अतः शास्त्र को भी सभी परिस्थितियों के "गीतार्थ" (आदर्श व्यक्ति) एवं "शास्त्र" के वस्तुनिष्ठ आधार कर्तव्यावर्तव्य का निर्णायक मा आधार नहीं बनाया जा सकता। मी प्रस्तुत किये हैं, यद्यपि इनका अन्तिम स्रोत निष्पक्ष प्रजा ही फिर शास्त्र (श्रुतियाँ) भी भिन्न-भिन्न हैं और परस्पर भिन्न मानी गयी। नियम भी प्रस्तुत करते हैं, अतः वे भी प्रामाणिक नहीं हो आचार-प्राप्ति सकते । इस प्रकार सापेक्ष नैतिकता में कर्तव्याकर्तव्य के निश्चय जैन आचार्यों ने सदाचरण या सम्यक् पारित्र का विवेचन की समस्या रहती है, शास्त्र के आधार पर उसका पूर्ण समाधान एवं वर्गीकरण विविध आधारों पर किया है। चूंकि प्रस्तुत अन्य सम्भव नहीं है।
में प्राचीन परम्परा के अनुसारखाचार का विवेचन-(१) ज्ञाना(स) निष्पक्ष बौद्धिक प्रजा ही अन्तिम निर्णायक
चार, (२) वर्शनाचार, (३) चारित्राचार, (४) तपाचार और ___इस समस्या के समाधान में हमें जैन दृष्टिकोण की एक (५) वीर्याचार के रूप में हुआ है (स्थानांग ५/२/४३३)। अतः विशेषता देखने को मिलती है । वह न तो एकान्त रूप में शास्त्र हमने भी इसे उसी रूप में उनका विवेचन प्रस्तुत करने का प्रयत्न को ही सारे विधि-निषेध का आधार बनाता है, न व्यक्ति को किया है। यहाँ ज्ञान, दर्शन आदि का अन्तर्भाव आचार में इसहो, उसके अनुसार शास्त्र मार्गदर्शक है. लेकिन अन्तिम निर्णायक लिए किया गया है कि ज्ञान और दर्शन मात्र जानने तया आस्था नहीं । अन्तिम निर्णायक व्यक्ति का राग और वासनाओं से रखने के विषय नहीं है। वे जीवन में जीने के लिए हैं। उनका रहित निष्पक्ष विवेक ही है। किसी परिस्थिति विशेष में व्यक्ति आचरण करना होता है। ज्ञान, दर्शन आदि का यही आचरणाका क्या कतंत्र्य है और क्या अकर्तव्य है, इसका निर्णय शास्त्र त्मक पक्ष ज्ञानाचार, दर्शनाचार कहा जाता है। इसी प्रकार को मार्गदर्शक मानकर स्वयं व्यक्ति को ही लेना होता है। आराधना की चर्चा के प्रसंग में भी ज्ञान आराधना, दर्शन आरा____भाचारशास्त्र का कार्य है व्यक्ति के सम्मुख सामान्य और धना और चारित्र आराधना की चर्चा हुई है। इसी प्रकार तपाअपवादात्मक स्थितियों में आचार का स्वरूप प्रस्तुत करना। राधना का उल्लेख भी जैन साहित्य में हुआ है। इसका तात्पर्य लेकिन परिस्थिति का निश्चय तो व्यक्ति को ही करना होता भी यही है कि उनकी साधना की जानी चाहिए। यह साधना है । शास्त्र आदेश नहीं, निर्देश देता है। यही दृष्टिकोण गीता की प्रक्रिया ही आचार कही जाती है इसे हम ज्ञान, दर्शन आदि का भी है। गीतोक्त शास्त्रप्रामाण्य भी इस तत्व का पोषक का व्यवहार पक्ष भी कह सकते हैं।
१ बृहत्कल्पमाष्य, ६५१।
२ गीता, १६/२४. ३ महाभारत, मनपर्व, ३१२/११५। ४ सस्मान्छास्त्र' प्रमाणं ते कार्याकार्य ध्ययस्थिता । जास्वा शास्त्रविधानोवतं कर्म कर्तुमिहाहंसि ।। ५ कन्टेम्परर एपिकल पोरीज, पु. १६३ ।
--गौता, १६/२४