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३६ | घरणानुयोग : प्रस्तावना लेकिन नैतिक निरपेक्षता का एक रूप और है, जिसमें वह सदैव या आत्मज्ञानी पुरुष जिस प्रकार आचरण करता है, साधारण ही देश, काल एवं व्यक्तिगत सीमाओं से ऊपर उठी होती है। मनुष्य भी उसी के अनुरूग आचरण करते है। वह आचरण के नैतिकता का बह निरपेक्ष रूप अन्य कुछ नहीं, स्वयं नैतिक जिस प्रारूप को प्रामाणिक मानकर अंगीकार करता है लोग भी आदर्श" ही है। नैतिकता का लक्ष्य एक ऐसा निरपेक्ष तथ्य है उसी का अनुकरण करते है। महाभारत में भी कहा है कि महाजो सारे नैतिक आचरणों के भूत्यांकन का आधार है । नैतिक जन जिन मार्ग से गये हों वही धर्म मार्ग है। यही बात जैनाआचरण को शुभाशुभता का अंकन इसी पर आधारित है। कोई गम उत्तराध्ययन में इस प्रकार कही गई है, "बुद्धिमान आचार्यों मी आचरण, चाहे वह उत्तर्ग-मार्ग से हो या अपवाद-मार्ग से, (आर्यजन) के द्वारा जिस धार्मिक व्यवहार का माचरण किया हमें उस लक्ष्य की ओर से जाता है जो शुभ है। इसके विपरीत गया है उसे ही प्रामाणिक मानकर तदनुरूप आचरण करने वाला जो भी आचरण इस नैतिक आदर्श से विमुख करता है, वह व्यक्ति कभी भी निन्वित नहीं होता है।"3 पाश्चात्य विचारक अशुभ है, अनैतिक है। नैतिक जीवन के उत्सर्ग और अपवाद बेडले के अनुत्तार भी नैतिक आचार की शुभाशुभवा का निश्चय नामक दोनों मार्ग इसी की अपेक्षा के सापेक्ष हैं और इसी के भाई चिरिए आधार पर किया जा सकता है।' मार्ग होने से निरपेक्ष भी, क्योंकि मार्ग के रूप में किसी स्थिति उपाध्याय अमर मुनि के अनुसार जैन विचारणा नैतिक तक इससे अभिन्न भी होते हैं और यही अभिन्नता उनको निरो- मर्यादाओं को न तो इतनी कठोर ही बनाती है कि व्यक्ति उनके कता का यथार्य तत्व प्रदान करती है । लक्ष्यरूपी मैतिक चेतना अन्दर स्वतन्त्रतापूर्वक विवरण न कर सके, न ही इतनी अधिक के सामान्य तत्व के आधार पर ही नैतिक जीवन के उत्सर्ग और सचीली कि व्यक्ति इच्छानुसार उन्हें मोड़ दे। जन विचारणा में अपबाद, दोनों मागों का विधान है। लक्ष्यात्मक नैतिक चेतना नैतिक मर्यादाएँ दुर्ग के खण्डहर जैसी नहीं हैं जिसमें विचरण ही उनका निरपेक्ष तत्व' है, जबकि आचरण का साबनात्मक की पूर्ण स्वतन्त्रता तो होती है, लेकिन शव के प्रविष्ट होने का मार्ग सापेक्ष तथ्य है। लक्ष्य' या नैतिक आदर्श नैतिकता की सदा भय बना रहता है। वह तो सुदृढ़ चार दीवारियों से युक्त मात्मा है और बाह्य आचरण उसका शारीर है। अपनी आत्मा के उम दुर्ग के समान है जिसके अन्दर व्यक्ति को विचरण की रूप में नैतिकता निरपेक्ष है, लेकिन अपने पारीर के रूप में वह स्वतन्त्रता है और विशेष परिस्थितियों में वह उससे बाहर भी सदैव सापेक्षा है । इस प्रकार जैन दर्शन में नैतिकता के दोनों ही आ-जा सकता है लेकिन शर्स यही है कि ऐसी प्रत्येक स्थिति में पक्ष स्वीकृत हैं। वस्तुतः नैतिक जीवन की सम्यक् प्रगति के उसे दुर्ग के द्वारपाल की अनुजा लेनी होगी। जैन विचारणा के लिए दोनों हो आवश्यक हैं । जैसे लक्ष्य पर पहुंचने के लिए यात्रा अनुसार नैतिकता के इस दुर्ग का द्वारपाल वह “गीतार्थ" है जो और पड़ाव दोनों आवश्यक हैं वैसे ही नैतिक जीवन के लिए भी देश, काल एवं वैयक्तिक परिस्थितियों को समुचित रूप में समाप्तदोनों पक्ष आवश्यक हैं। कोई भी एक दृष्टिकोण समुचित और कर सामान्य व्यक्ति को अपयाद के क्षेत्र में प्रविष्ट होने की सर्वांगीण नहीं कहा जा सकता। समकालीन नैतिक चिन्तन में अनुज्ञा देता है । अपवाद की अवस्था के सम्बन्ध में निर्णय देने भी जैन दर्शन के इसी दृष्टिकोण का समर्थन मिलता है। का एवं यथा-परिस्थिति अपवाद मार्ग में आचरण करने अथवा सवाचार और दुराचार का निर्धारण कैसे हो?
दूसरे को कराने का समस्त उत्तरदायित्व "गीतार्थ" पर ही (अ) गीतार्थ का आदेश
रहता है । गीतार्थ वह व्यक्ति होता है जो मैतिक विधि-निषेध __सापेक्ष नैतिकता में जनसाधारण के द्वारा कर्तव्याकर्तव्य का के आचाररांगादि आचारसंहिता का तथा निशीथ आदि छेदसूत्रों निश्चय करना सरल नहीं है। अतः जैन नैतिकता में सामान्य का मर्मज्ञ हो एवं स्व-प्रज्ञा से देश, काल एवं वैयक्तिक परिस्थिव्यक्ति के मार्गदर्शन के रूप में "गीतार्थ" की योजना की गई तियों को समझने में समर्थ हो । गीतार्थ वह है जिसे कर्तव्य और है। मीतार्थ यह आदर्ण व्यक्ति है जिसका आचरण जनसाधारण अकर्तव्य के लक्षणों का यथार्थ ज्ञान है, जो आय-व्यय, कारणके लिए प्रमाण होता है। गीता के आचारदर्शन में भी जन• अकारण, अनाढ़ (रोगो, बुद्ध) अनागाढ़, वस्तु-अवस्तु, युक्तसाधारण के लिए मार्गदर्शन के रूप में श्रेष्ठजन के आचार को अयुक्त, समय-असमर्थ, यतना-अयतमा का सम्यग्ज्ञान रखता है, ही प्रमाण माना गया है। गीता स्पष्ट रूप में कहती है कि श्रेष्ठ साथ ही समस्त कर्तव्य कर्म के परिणामों को भी जानता है,
१ गीता, ३/२१ ।
२ महाभारत, वनपर्व, ३१२/११५ । ३ उसराध्ययन, १/४२ ।।
___४ एथिकल स्टडीज, पृ.१९६, २२६ । ५ देखें- धी अमर भारती १९६४ में कमशः प्रकाशित उत्सर्ग और अपवार पर उपाध्याय अमरमुनिजी के लेख । ६ ममिधानरागकोश, खण ३, पृ.९०२।