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सदाचरण : एक मौद्धिक विमर्श | ३५
उस पथार्थ भूमिका तक हो, जिसमें वह खड़ा है, सीमित है तो है, अर्थात् यदि व्यक्ति स्वस्थ है और देयकालगत परिस्थितियों वह कभी भी लक्ष्य तक नहीं पहुँच सकता, यह पथभ्रष्ट हो भी वे ही हैं जिनको ध्यान में रखकर विधि या निषेध किपा सकता है । दूसरी ओर वह व्यक्ति, जो गन्तव्य की और तो देख गया है, तो व्यक्ति को उन नियमों तथा कर्तव्यों का पालन भी रहा है किन्तु उस मार्ग को नहीं देख रहा है जिसमें वह गति तदनुरूप करना होगा। जैन परिभाषा में इसे "उत्सर्ग-मार्ग" कर रहा है, मार्ग में वह ठोकर खाता है और कण्टकों से अपने कहा जाता है, जिसमें साधक को नैतिक आचरण शास्त्रों में को पद विद्ध कर लेता है। जिस प्रकार चलने के उपक्रम में प्रतिपादित रूप में ही करना होता है। उत्सर्ग नैतिक विधिहमार. काम न तो मात्र सामने देखने से चलता है और न मात्र निषेधों का सामान्य कथन है। जैसे मन, वचन, काय से हिसा नीचे देखने से ही, उभी प्रकार नैतिक प्रगति में हमारा काम न न करना, न करवाना, न करने वाले का समर्थन करना । लेकिन तो मात्र निरपेक्ष दृष्टि से चलता है और न मात्र सापेक्ष दृष्टि जब इन्हीं सामान्य विधि-निधों को किन्हीं विशेष परिस्थितियों से चलता है । निरपेक्षतावाद उस स्थिति की उपेक्ष- कर देता है में शिथिल कर दिया जाता है, तब नैतिक आचरण की उस जिसमें व्यक्ति खड़ा है, जबकि सापेक्षतावाद उस आदर्श या अवस्था को 'थपवाद-मार्ग" कहा जाता है। उत्सर्ग मार्ग अपसाध्य की उपेक्षा करता है जो कि गन्तव्य है। इसी प्रकार वाद-मार्ग की अपेक्षा से सापेक्ष है, लेकिन जिस परिस्थितिगत निरपेक्षतावाद सामाजिक नीति की उपेक्षा कर मात्र वैयक्तिक सामान्यता के तत्व को स्वीकार कर उत्सर्ग-मार्ग का निरूपण नीति पर बल देता है, किन्तु व्यक्ति समाज निरपेक्ष होकर नहीं किया जाता है, उस सामान्यता के तत्व की दृष्टि से निरपेक्ष जो सकता । पुनः निरपेक्षवादी नीति में साध्य की सिद्धि ही ही होता है । अपवाद की अवस्था में सामान्य नियम का भंग हो प्रमुख होती है, किन्तु वह साधन उपेक्षित बना रहता है जिसके जाने से उसकी मान्यता खण्डित नहीं हो जाती, उसकी सामाबिना साध्य की सिद्धि सम्भव नहीं है। अतः सम्यक नैतिक ग्यता या सार्मभौमिकता समाप्त नहीं हो जाती। मान लीजिए, जीवन के लिए नीति में सापेक्ष और निरपेक्ष दोनों तत्वों को हम किसी निरपराध प्रागी की जान बचाने के लिए असस्य असारमा को स्वीकार करना पाप है।"
बोलते हैं, इससे सत्य बोलने का सामान्य नियम खण्डित नहीं हो उत्सर्ग और अपवाद की समस्या
जाता । अपवाद न सो कभी मौलिक नियम बन सकता है, न जैन नैतिक विचारणा में नैतिकता के सापेक्ष और निरपेक्ष अपवाद के कारण उत्सर्ग की सामान्यता या सार्वभौमिकता ही दोनों रूप स्वीकृत हैं। लेकिन उसमें भी निरपेक्षता दो भिन्न खण्डित होती है । उस्सर्ग-मार्ग को निरपेक्ष कहने का प्रयोजन अर्थों में प्रयुक्त है। प्रथम प्रकार की निरपेक्षता वह है जिसमें यही होता है कि वह मौलिक होता है, यद्यपि उन मौलिक आचार के सामान्य या मौलिक नियमों को निरपेक्ष माना जाता नियमों पर आधारित बहुत से विशेष नियम हो सकते हैं। है और विशेष नियमों को सापेक्ष माना जाता है, जैसे अहिंसा उत्सर्ग-मागं अपवाद-मागं का बाध नहीं करता है, वह तो मात्र सामान्य या सार्वभौम नियम है, लेकिन फलाहार विशेष नियम इतना ही बताता है कि अपवाद सामान्य नियम नहीं बन सकता । है। जैन परिभाषा में कहें तो श्रमण के मूलगुण सामान्य नियम द्वा० श्रीचन्द के शब्दों में, "निरपेक्षवाद (उत्सर्ग:मार्ग) सभी हैं और इस प्रकार निरपेक्ष है, जबकि उत्तरगुण विशेष नियम नियमों की सार्वभौमिकता सिद्ध नहीं करना चाहता, परन्तु केवल हैं. सापेक्ष हैं। आधार के सामान्य नियम देशकालगत विभेद सभी मौलिक नियमों की सार्वभौमिकता सिद्ध करना चाहता में भी अपनी मूलभूत सृष्टि के आधार पर निरपेक्ष प्रतीत होते है।" उत्सर्ग की निरपेक्षता देश, काल एवं ब्यक्तिगत परिहैं । लेकिन इस प्रकार की निरपेक्षता वस्तुतः सापेक्ष ही है। स्थितियों के अन्दर ही होती है, उससे बाहर नहीं। उत्सगं और आपरण के जिन नियमों का विधि और निषेध जिस सामान्य अपवाद नैतिक आचरण की विशेष पद्धतियां हैं। लेकिन दोनों दशा में किया गया है, उसकी अपेक्षा से आचरण के वे निमम ही किसी एक नैतिक लक्ष्य के लिए है, इसलिए दोनों नैतिक हैं। उसी रूप में माचरणीय हैं। व्यक्ति सामान्य स्थिति में उन जैसे, दो मार्ग यदि एक ही नगर तक पहुंचाते हों, तो दोनों ही नियमों के परिपालन में किसी अपवाद या छूट की अपेक्षा नहीं मार्ग होंगे, अमार्ग नहीं; वैसे ही अपवादात्मक नैतिकता का कर सकता । यहाँ पर भी सामान्य दशा का विचार व्यक्ति एवं सापेक्ष स्वरूप और उत्सर्गात्मक नैतिकता का निरपेक्ष स्वरूप उसकी देशकालगत बाह्म परिस्थितियों के सन्दर्भ में किया गया दोनों ही नैतिकता के स्वरूप है और कोई भी अनैतिक नहीं है।
१ देखें-जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग १, पृ.७७-७८ । २ ही पृ. ६७-६६।
नीतिशास्त्र का परिचय, ग. मीचय, पृ. १२२ ।